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Manoj kumar shukla

Manoj kumar shukla Matrubharti Verified

@manojkumarshukla2029
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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*कुंभ, प्रयाग, त्रिवेणी, संक्रांति, गंगा*

भजो तुम प्रभु को भाई, करेंगे राम भलाई....

महा- *कुंभ* का आगमन, बना सनातन पर्व।
सकल विश्व है देखता, करता भारत गर्व।।

*प्रयाग* राज में भर रहा, बारह वर्षीय कुंभ।
पास फटक न पाएगा, कोई शुंभ-निशुंभ।।

गँगा यमुना सरस्वती, नदी *त्रिवेणी* मेल।
पुण्यात्माएँ उमड़तीं, धर्म-कर्म की गेल।।

सूर्य देव उत्तरायणे, मकर *संक्रांति* पर्व।
ब्रह्म-महूरत में उठें, करें सनातन गर्व।।

*गंगा* तट की आरती, लगे विहंगम दृश्य।
अमरित बरसाती नदी,कल-कल करती नृत्य।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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भजो तुम प्रभु को भाई, करेंगे राम भलाई....

ज्ञानी अपने ज्ञान से , हरता सब अज्ञान।
मूरख ज्ञान बखारता, सबको इसका भान।।

सूर्य देव उत्तरायणे, मकर संक्रांति पर्व।
गंगा में स्नान करके, करें सनातन गर्व।।

ईश्वर की आराधना, भक्ति भाव का योग।
तिल के लड्डू हैं बना, खिचड़ी खाते लोग।।

पोंगल हो या लोहड़ी, मतलब तो बस एक।
मिल जुल खुशी मनाइए, सभी सनातन नेक।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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नया वर्ष मंगल करे, दो हजार पच्चीस।
खुशियों की माला जपें,मिटे सभी की टीस।।

भारत-भू देती रही, अनुपम यह संदेश।
सकल विश्व में शांति हो, मंगलमय परिवेश।।

सुख वैभव की कामना, मानव-मन की चाह।
प्रगतिशील जब हम बनें, मिल ही जाती राह।।

सत्य सनातन की विजय, दिखती फिर से आज।
दफन हुए जो निकल कर, उगल रहे हैं राज।।

समृद्धि-मार्ग पर है बढ़ा, भारत अपना देश।
चलने वाला अब नहीं, छल प्रपंच परिवेश।।

महाकुंभ का आगमन, कर गंगा इस्नान।
जात-पात से दूर रह, रख मानवता मान।।

मंगलमय की कामना, हम सब करते आज।
सकल विश्व में हो खुशी, सुखद शांति सरताज।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज *

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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*धुंध, धुआँ, कुहासा, ओस, उजास*

जीवन की हर *धुंध* से, रहें सुरक्षित आप।
संकट कभी न घेरते, कभी न आते ताप।।

*धुआँ*-धुआँ जीवन हुआ, जीवन है बेकार।
चलो बुझाते आग को, करे प्रकृति शृंगार।।

बढ़ा *कुहासा* देखकर, घबड़ाएँ क्यों आप।
सूरज आऐगा अभी, उसको लेगा नाप।।

ज्यों-ज्यों ठंडी बढ़ रही, खेलें भू पर *ओस*।
प्रकृति बिखेरे नव छटा, भरती मानव जोश।।

सूर्य *उजास* बिखेर कर, मन में भरे उमंग।
जीवन में उत्साह भर, जग को करता दंग।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*
पुणे

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दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*अविश्वास, रामायण, विद्या, नेकी, कालचक्र*

*अविश्वास* के दौर ने, बड़ी खींच दी रेख।
संबंधों की बानगी, समय बिगड़ता देख।।

*रामायण* के पात्र सब,बहुविध दें संदेश।
यश अपयश की राह चुन, हम बदलें परिवेश।।

*विद्या* पा जाग्रत करें, अपना ज्ञान विवेक।
जीवन सफल बनाइए, राह बनेगी नेक।।

*नेकी* की दीवार से, गढ़िए नए मुकाम।
मानवता समृद्धि से, खुश होते श्री राम।।

*कालचक्र* अविरल चला, गढ़ी गई यह सृष्टि।
फिर उदास किस बात पर, बदलें अपनी दृष्टि।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*चिंतन, देर, रेत, चरण, राह*

*चिंतन* करना है हमें, सभी काम हों नेक।
कर्म करें जो भी सदा, जाग्रत रखें विवेक।।

शुभ कार्यों में शीघ्रता,करें न *देर*-सबेर।
यही बात सबने कही,जीवन का वह शेर।।

समय फिसलता *रेत* सा,पकड़ न पाते हाथ।
गिनती की साँसें मिलीं, नेक-नियत हो साथ।।

*चरण* वंदना राम की, हनुमत जैसे वीर।
दोनों की अनुपम कृपा, करें धीर गंभीर।।

चाह अगर दिल में रहे, मिल ही जाती *राह*।
आशा कभी न छोड़ना, निश्चय होगी वाह।।

मनोजकुमार शुक्ल *मनोज*

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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*हठधर्मी,हेमंत,त्याग,साधना,समाज*

हठधर्मी का शून्य है, शिक्षा ज्ञान विवेक।
अपनी केवल सोच को, सदा बताता नेक।।

ऋतु आई हेमंत की, देती शुभ संकेत।
प्रिये चलो अब गाँव में, सजे फूल के खेत।।

त्याग तपस्या से बनें , सुंदर घर परिवेश।
अहं भाव को त्याग दें, दूर हटेंगे क्लेश।।

आदर्शों की साधना, बड़ा कठिन है काम।
तभी सफल हो कामना, जग में उसका नाम।।

मानवता को ध्यान रख, हो समाज निर्माण ।
विपदा कभी न छा सके, मिले दुखों से त्राण।।

मनोज कुमार शुक्ल "मनोज"

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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*कुनकुना,धूप,नर्म,ठिठुरन,सूरज*

पानी जब हो *कुनकुना*, तभी नहाते रोज।
काँप रहा तन ठंड से, प्राण प्रिये दे भोज।।

*धूप* सुहानी लग रही, शरद शिशिर ऋतु मास।
बैठे कंबल ओढ़ कर, गरम चाय की आस।।

*नर्म* दूब में खेलतीं, रोज सुबह की बूँद।
सूरज की किरणें उन्हें, सिखा रहीं हैं कूँद।।

*ठिठुरन* बढ़ती जा रही, ज्यों-ज्यों बढ़ती रात।
खुला हुआ आकाश चल, मिल-जुल करते बात।।

*सूरज* की अठखेलियाँ, दिन में करे बवाल।
शीत लहर का आगमन, तन-मन है बेहाल।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*
😢😢😢😢

जबलपुर का भेड़ाघाट, बंदरकूदनी

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दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*भारत, स्वर्ग, दिनेश, विश्वशांति, पहरेदार*

जयति-जयति जय भारती, स्वर्ग धरा यह देश।
विश्व गुरू *भारत* सुखद, विश्व शांति परिवेश।।

जन्म-भूमि ही स्वर्ग-सम, भारत भूमि महान।
राम कृष्ण गौतम यहाँ, शिव का नित वरदान।।

प्रात काल में ऊगते, ज्योतिर्वान *दिनेश*।
धरा प्रफुल्लित हो उठी, पहन कर्म-गणवेश।।

*विश्वशांति* का पक्षधर, रहा सदा यह देश।
शांति दूत हनुमत बने, धरा कृष्ण ने वेश।।

उत्तर में हिमराज हैं, सच्चा *पहरेदार*।
ड्रैगन खड़ा दहाड़ता, नहीं लाँघता द्वार।।

मनोज कुमार शुक्ल "मनोज"

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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*परिवार,माया,तस्वीर,अतीत,कविता,जवान*

हँसी-खुशी *परिवार* की, आनंदित तस्वीर।
सुख-दुख में सब साथ हैं, धीर-वीर गंभीर।।

*माया* जोड़ी उम्रभर, फिर भी रहे उदास।
नहीं काम में आ सकी, व्यर्थ लगाई आस।।

टाँग रखी दीवार पर, मात पिता *तस्वीर*।
जिंदा रहते कोसते, उनकी यह तकदीर।।

यादें करें *अतीत* की, बैठे सभी बुजुर्ग।
सुदृढ़ था परिवार तब, बचा तभी था दुर्ग।।

*कविता* साथी है बनी, चौथेपन में आज।
साथ निभाती प्रियतमा, पहनाया सरताज।।

तन-मन आज *जवान* है, नहीं गए दरगाह।
उम्र पचासी की हुई, देख करें सब वाह।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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