अपनेपन की मुस्कानों पर, जिंदा हूँ.....
अपनेपन की मुस्कानों पर, जिंदा हूँ।
नेह आँख में झाँक-झाँक कर, जिंदा हूँ।।
आश्रय की अब कमी नहीं है यहाँ कहीँ,
चाहत रहने की अपने घर, जिंदा हूँ।
खोल रखी थी मैंने दिल की, हर खिड़की।
भगा न पाया अंदर का डर, जिंदा हूँ।
तुमको कितनी आशाओं सँग, था पाला।
छीन लिया ओढ़ी-तन-चादर, जिंदा हूँ।
माना तुमको है उड़ने की, चाह रही।
हर सपने गए उजाड़ मगर, जिंदा हूँ।
विश्वासों पर चोट लगाकर, भाग गए।
करके अपने कंठस्थ जहर, जिंदा हूँ।
धीरे-धीरे उमर गुजरती जाती है।
घटता यह तन का आडंबर, जिंदा हूँ।
मनोजकुमार शुक्ल *मनोज*