दोहा -कहें सुधीर कविराय
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विविध
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तकनीकी संसार में, तैर रहे हैं लोग।
यह कोई संयोग है, अथवा कोई रोग।।
आव भगत करिए सदा, जो आये घर द्वार।
ईश्वर भी तब ही सदा, करते बाधा पार।।
मेल-जोल विस्तार को, बढ़ा रहे जो आप।
सोच समझ से चूकते, बन जाता अभिशाप।।
मातु शारदे की कृपा, सदा रहे दिन रात।
गीत गजल की आपके, जमकर हो बरसात।
दोहा पहला पाठ है, कहते छंदाचार्य।
दोहा सीखे भी बिना , नहीं बनेगा कार्य।।
नियमों का पालन करें, मूरख हैं वे लोग।
नहीं समझ वे पा रहे, पाले कैसा रोग।।
स्वागत वंदन संग में, रखो हृदय मृदु भाव।
भाव भावना पाक हो, नहीं कुरेदें घाव।।
अभी न जाना आपने, मेरा असली रंग।
जानोगे जब भेद ये, रह जाओगे दंग।।
नजर आप को आ रहा, नफ़रत चारों ओर।
नहीं सुनाई दे रहा, राम नाम का शोर।।
बाहर भीतर भेद क्यों, रखते हो तुम यार।
खुलेगा इक दिन भेद ये, रोओगे जार- जार।।
बड़ा सरल है आजकल, कहना खुद को श्रेष्ठ।
हर कोई कहता फिरे, मैं ही सबसे ज्येष्ठ।।
कहलाते अज्ञान हैं, सरल आज के लोग।
जो ऐसा हैं सोचते, उनका है दुर्योग।।
कठिन राह होती सरल, संग खड़ा परिवार।
जीवन में सबसे बड़ा, ये होता आधार।।
संभल में दंगा हुआ, शिव इच्छा लो मान।
आगे आगे देखना, होगा जो उत्थान।।
बस इतनी करिए कृपा, बनें गुरू मम आप।
जल्दी से हाँ कीजिए, सौंपू अपने पाप।।
भागा भागा वो फिरे, नहीं पा रहा ठौर।
जान सका न रहस्य ये, कैसा आया दौर।।
अभी न जाना आपने, मेरा असली रंग।
जानोगे जब भेद ये, रह जाओगे दंग।।
सुधीर श्रीवास्तव