सौ सवाल करे
बार–बार कहे ।
मैं हार गई
वो मुझे हार गए।
क्या मैं चीज़ भली थी?
भरी सभा पड़ी थी ।
मर्यादा गई ,संस्कार गए,
बची कूची थी जो मनुष्यता
लगता वो भी हार गए।
आंखों में अश्रु भरे थे,
मन में फिर भी एक आस जगी ,
मस्तक पर दया की भीख पड़ी थी ,
क्या मैं लाशों के बीच खड़ी थी।
वो मुख पर एक हास्य लिए
आंखों में वो विलास लिए ,
केशो से मुझको खीच रहे थे।
सब शीश झुकाए हर तरफ खड़े थे ,
मैं चीख रही थी ,सब देख रहे थे।
न किसी में दया की भीख बची थी ,
माता की न कोई सिख बची थी।
मैं टूट गई ,कोशिश मेरी छूट गईं थी
मैं निस्तब्ध खड़ी थी
करुणा दया सब हार गई
मनुष्यता भी शर्मशार हुई
भरी सभा मुझे निर्वस्त्र किया
आत्मा पर कैसा अस्त्र दिया
राजपाठ भी लगता सारा ढह गया
और न समाज में लाज बची थी
जंघा टूटी , सांसे टूटी ,
टूट गए वह शीश सभी ।
देख रहे थे जो , नीच मुझे कभी ।
खींच रहे थे जो केश मेरे
उन्ही के रक्तो से मैंने केशो को धोया था
जो बोल ना सकी वो समाज गया
जो छुए थे वो मैले हाथ गए ।
देख रहे थे भरी सभा खड़े
देखो कैसे राख भए
युद्ध हुआ महायुद्ध हुआ
प्रलय हा हा कार मचा
त्राहि –त्राहि चहु दिशा
निर्लज्ज पतित को वह
एक सीख सिखाने आए थे
वो द्वापर युग था ।
मुझे कृष्ण बचाने आए थे।
✍️ रिंकी उर्फ़ चंद्रविद्या