प्रेम
प्रेमहि ते पापिउ तरि जावैं।
प्रेम बिना राघव नहि आवैं।।
प्रेम में भेद-भाव नहि होवै।
बिना भेद जीवन सुख पावै।।
सुख संदेश नहीं भौतिक है।
मनसा , हिय प्रसन्न होवै।।
सुख का अर्थ यही प्रिय है।
समाज चाहे कुछ भी समझै।।
ई सुख बस प्रेमहि ते पावैं।
प्रेम बिना राघव नहि आवैं।।1।।
प्रेम रूप नारायण कै।
नारायण में जग बास करै।।
जग के जन के मन-मन मैं।
नारायण स्वयं निवास करैं।।
प्रेम रूप रवि कंचन प्रकाश दै।
जग कै अँधियारा दूर करैं।।
ई कलियुग रूपी रजनी कै।
मन के तम संग संहार करै।।
बिनु प्रेम जीव कुछ नहि पावैं।
प्रेम बिना राघव नहि आवैं।।2।।
तुलसी कृत वर्णित करैं।
राम मात्र प्रेमहि ते मिलैं।।
प्रेम रुप कान्हा अवतारे।
संग राधिका रास विहारे।।
प्रेम कृती गीता व्यासहिं कै।
प्रेम कृती मानस तुलसी कै।।
अखिल भूमि प्रेमहि ते उपजै।
भगत सप्रेम नाम हरि भजै।।
प्रेम बिना प्रभु समझि न आवैं।
प्रेम बिना राघव नहि आवैं।।3।।
प्रेम जुबानी विदित वेद कै।
प्रेम कहानी लिखित शास्त्र मै।।
प्रेम ऋषी-मुनि वर्णित कीन्हे।
ब्रम्हा कछु आपन मत दीन्हे।।
सहसानन कछु बरनेऊ प्रेमा।
पूर्ण प्रेम रति काम न चीन्हा।।
हम अजान बस एतनै जाना।
प्रेम वसी नाचै भगवाना।।
प्रेम भूमि बैकुण्ठ बनावैं
प्रेम बिना राघव नहि आवैं।।4।।
-उत्कर्ष पण्डित