रचना
मेरे सपनों को जानने का हक़ रे
क्यूँ सदियों से टूट रहे हैं,
इन्हें सजने का नाम नहीं
मेरे हाथों को ये जानने का हक़ रे
क्यूँ बरसों से खाली पड़े हैं,
इन्हें आज भी काम नहीं
मेरे पैरों को ये जानने का हक़ रे
क्यूँ गांव गांव चलना पड़े रे,
क्यूँ बस का निशान नहीं
मेरी भूख को ये जानने का हक़ रे
क्यूँ गोदामों में सड़ते हैं दाने,
मुझे मुठ्ठी भर धान नहीं
मेरी बूढ़ी माँ को जानने का हक़ रे
क्यूँ गोली नहीं सुई - दवाखाने,
पट्टी-टांके का सामान नहीं
मेरे बच्चों को ये जानने का हक़ रे
क्यूँ रात दिन करें मजदूरी,
क्यूँ शाला मेरे गांव नहीं
मेरे खेतों को ये जानने का हक़ रे
क्यूँ बांध बने रे बड़े बड़े,
तो भी फसलों में जान नहीं
मेरी नदियों को जानने का हक़ रे
क्यूँ ज़हर मिलायें कारखाने,
जैसे नदियों में जान नहीं
मेरे जंगलों को जानने का हक़ रे
कहां डालियां वो पत्ते, तने, मिट्टी,
क्यूँ झरनों का नाम नहीं
मेरे गांव को ये जानने का हक़ रे
क्यूँ बिजली ना सड़कें ना पानी,
खुली राशन की दुकान नहीं
मेरी बस्तियों को जानने का हक़ रे
क्यूँ बसे हुये घर वो उजाड़े,
रहे नामोनिशान नहीं
मेरे वोटों को ये जानने का हक़ रे
क्यूँ एक दिन बड़े बड़े वादे,
फिर पांच साल काम नहीं
मेरे राम को ये जानने का हक़ रे
रहमान को ये जानने का हक़ रे
क्यूँ खून बहे रे सड़कों पे,
क्या सब इन्सान नहीं
मेरी ज़िंदगी को जीने का हक़ रे
अब हक़ के बिना भी क्या जीना,
ये जीने के समान नहीं
विनय महाजन