खामोश हैं कैसी ये राहें
सूने पड़े बाज़ार सारे
फ़ासला है दरमियाँ और
बेबसी के हैं नजारे
धूप खिलती है सुबह जब
पूछती है वो जमीं से
किस बात का है ख़ौफ़ कि
हैं पर्दानशीं इंसान सारे
वो सफलता की दौड़ अंधी
वो खरी खोटी कमाई
पूछता है वक्त हँसकर
क्या मिला इनके सहारे?
राह पर भटके हुये थे
जाने क्या कमाना चाहते थे
मझधार में कश्ती फँसी तो
याद आयें हैं किनारे
पर रात आखिर कब तलक
हार हम माने नहीं हैं
ले आयेंगे वापस शहर में
खुशनुमा फिर वो बहारें
हाथ में फिर हाथ लेकर
झूमेगें और गायेगें
फिर से बरसेगीं वही
मदमस्त सावन की फुहारें।
भीड़ उमड़ेगी कहीं फिर
फिर वही मेले लगेंगे
टूट कर ढह जायेंगी
मजबूरियों की ये दीवारें
फिर यहाँ इंसानियत हो
फिर यहाँ इंसाफ हो
रात बीती बात बीती
अब गलतियाँ अपनी सुधारें
आज से कुछ सीख लेकर
आओ अपना कल सँवारें।
अभिनव सिंह "सौरभ"