रचना - शीर्षक
*प्रिये कहां नहीं हो तुम* !
(स्व रचित)
प्रकृति प्रदत्त अद्भूत उपहार,
सुवासित हो, सर्वत्र हो,
प्रिये कहां नहीं हो तुम ..!
घर के आँगन मे हो, उपवन मे हो,
स्वागत में हो और सजावट मे हो ,
प्रिये कहा नहीं हो तुम!
देवालय में हो, विद्यालय में हो,
मजार पर हो और बाजार में भी हो ,
प्रिये कहा नहीं हो तुम!
डोली के संग हो, अर्थी के संग हो,
सुहाग सेज पर हो, श्मशान मे भी हो ,
प्रिये कहा नहीं हो तुम!
नारी के केश में, पुरुष की जेब में हो ,
हुस्न की तारीफ में हो और इश्क के इजहार में भी हो,
प्रिये कहा नहीं हो तुम!
गीत गज़ल में , कविता शायरी में हो, कहानी लेखों और चित्रकारी रंगोली में भी हो,
प्रिये कहा नहीं हो तुम!
प्रभु के शरीर का शृंगार हो ,
शहीदों की शहादत पर भी गिरते हो तुम ,
खूबसूरत तो हो ही खुशनसीब भी हो तुम ,
प्रिये कहा नहीं हो तुम!
प्रकृति प्रदत्त अद्भूत उपहार
सुवासित हो, सर्वत्र हो,
प्रिये कहा नहीं हो तुम!
*अनिता शाह*