लहू लूहान
सारा ग़ुस्सा मेरा काफ़ूर हो गया उसकी हथेलियाँ देख कर दसो उँगलियों के पहले पोर पर उसने किसी नुकीली चीज़ से उकेर रखा था।
“Please sorry”
मैं सिर्फ़ इतना ही तो बोल पाई थी।
“पागल हो गए हो क्या?”
वह चुप रहा मैंने उसकी हथेली अपने हाथ में ले चूम ली और भर्राए गले से पूछा।
“कैसे किया ये तुमने? बहुत दर्द हुआ होगा फिर कभी ऐसा मत करना।”
वह मेरे आँसूओं को अपनी हथेली में ले अपने माथे पर लगाता हुआ बोला।
“आप के लिए कुछ भी।”
मैं जानती थी की वह सब कुछ सह सकता है बस मेरी नाराज़गी उससे बर्दाश्त नहीं होती और यही कारण था कि वह मेरी हर बात को अपने सर माथे रखता था।
मैं भी उसकी हर बात को ख़ुशी-ख़ुशी पूरी करती थी मुझे ये ख़्याल रहता था कि वह किसी भी बात से दुःखी न हो पहले ही उसके जीवन में समस्यायें कम न थी।
उसने मेरे कहने पर ही तो अपना घर बसाया था। वह तो विवाह करना ही नहीं चाहता था।
मेरे समझाने पर विवाह कर वह वैवाहिक जीवन जीने लगा पर वह जीवन की एक नई जंग में फँस गया था।
रोज़ ही एक नई उलझन के साथ वह मेरे पास आता और मैं उसकी उलझनों को सुलझाने में उसकी मदद कर उसे सफल जीवन जीने का मंत्र देती।
आज मैं सब्ज़ी काट रही थी और वह मेरे ही क़रीब खड़ा अपना दुखड़ा रो रहा था मैंने उसकी बात सुन उससे कहा।
“क्या रोज़-रोज़ एक ही मसला लिए परेशान होते रहते हो।”
मैं आगे कुछ और कहती कि वह बोल उठा।
“प्यार करता हूँ तुमसे! तभी कुछ और समझ नहीं आता।”
मैं सिहर उठी और झटके से सब्ज़ी की जगह उँगली कट गई घायल मैं क्रोध से काँप रही थी मेरी ममता को उसने ऐसे प्यार के रूप में देखा उसने आगे बढ़ मेरे बहते हुए रक्त को रोकना चाहा मैं ने उसे सख़्ती से रोकते हुए कहा।
“काश उस रोज़ ही मैं तुम्हारे मन के इस भाव को समझ गई होती जब तुमने पोर पर अपनी क्षमा याचना लिखी थी तो आज रिश्ते यूँ लहू लूहानन होते।”
खून भरी उँगली से मैंने उसे बाहर का रास्ता दिखाया और खुद को संयत किया।
ज्योत्सना सिंह
लखनऊ
11:12pm
20-3-2020