वादा
सूरज की पहली किरण और एक वादा
“मैं तुम्हारे साथ हूँ।”
और बस फिर पूरा दिन चुटकियों में गुज़र जाता और वो लम्बी वाली मुस्कान मेरे छोटे से चेहरे को ढँके रहती और मैं बिना थके चलती रहती
इतना चलती इतना चलती की मुझे पाँव की बेवाई नज़र ही न आती
नज़र आता तो बस इतना कि इसके उसके चेहरे पर कहीं कोई शिकन न आने पाए।
पर फिर भी कोई न कोई आड़ी-तिरछी रेखा वक्राकार हो कर अपना गढ़ा सा निशान छोड़ जाती।
हाँ कभी-कभी कुछ शब्द कान को राहत दे देते जब तैरते हुए वो आ कर मेरे कान से टकरा जाते।
“अरे बहुत काम काजी है सब काम आता है और बहुत जल्दी से निबटा लेती है सारे काम और कभी थकान इसके चेहरे पर नज़र नहीं आती।”
पर एकांत में अपने उस कोने में जैसे ही जाती और कमर को जाने अनजाने कसरत नुमा कर के उन शिराओं को राहत देने की नकाम कोशिश करती तो वही मीठे बोल चुभ जाते।
“कभी थकती नहीं है।”
और मैं फिर सीधी हो कभी कुछ बुनने में और कभी कुछ चुनने में खुद को व्यस्त कर लेती।
उसी व्यस्तताओं के बीच तुम फिर मुझे बुझी-बुझी नज़रों से देखते और बिना तुम्हारे बोले ही मैं समझ जाती की तुम यही कह रहे हो।
“मैं लगा तो हूँ पर हर बार ना कामयाबी मेरे लिए द्वार खोले खड़ी ही रहती है और मेरे साथ-साथ तुम भी पिसती हो सबकी बातें सुनती हो एक न एक दिन मैं तुम्हारे लिए ख़ुशियों के द्वार ज़रूर खोलूँगा बस तुम मेरा साथ मत छोड़ना।”
और फिर तुमने अपना वादा पूरा किया तुम्हारी नौकरी के साथ ही हमारा घर सुख सुविधाओं से भर गया मैं भी तो तुम्हारे साथ ही गरम चुपड़ी रोटियों का स्वाद लेने लगी।
तभी तो सलाख़ों के उस पार खड़े तुम से मैं बस इतना ही कह पाई
“कैसे कहूँ मैं कि मैं तुम्हारे साथ हूँ? ईमान की सूखी रोटी बेमानी की चुपड़ी रोटी से कहीं ज़्यादा स्वादिष्ट थी।”
ज्योत्सना सिंह
लखनऊ
11:23pm.
11-2-2020