दीपावली क्या आई। छोटे बड़े सभी व्यस्त हो गये। आजकल एक नई संस्कृति का विकास हो रहा है, जिसके अन्तर्गत दिवाली पर महंगे उपहारों का लेन देन हो रहा है। उपहार-संस्कृति का विकास अपनी आर्थिक हैसियत के आधार पर तय हो रहा है। गरीब को कोई उपहार नहीं देता मगर जिसके पास पहले से ही काफी है उसी के पास उपहारों का जखीरा जा रहा है, गरीब बच्चों को आतिशबाजी के लिए कोई पटाखे नहीं देता, मगर सम्पन्न वर्ग एक दूसरे को उपहारों से लाद देते हैं, क्योकि वे काम के आदमी हैं। बड़े आदमी हैं, उनको उपहार देने से आज नही ंतो कल फायदा पहुंचेगा। कुछ न कुछ लाभ अवश्य मिलेगा। गये वे दिन जब उपहारों के साथ भावनाएं, संवेदनाएं जुड़ी होती थी, लोग एक दूसरे को उपहार देकर खुश होते थे। अब उपहार विनिमय चाहता है, मैंने मिठाई दी, तुम भी मिठाई दो या प्रमोशन दो या आर्थिक लाभ दो। नहीं दे सकते तो फिर तुम्हें उपहार देने का फायदा क्या ? और चूंकि अधिकांश गरीब, बेसहारा लोग कुछ नहीं दे सकते उन्हें कोई उपहार भी नहीं देता। मिठाई, मेवे के पैकेटस,सूटलेन्थ, मंहगे पैन, कलेण्डर, डायरियां, घड़ियां, जूते, आभूपण और नकदी तक। एक किलो मिठाई के डिब्बे मे दस हजार का गिफ्ट चैक रख कर दे आइये, कैसे नहीं होगाआपका प्रमोशन या साली का स्थानान्तरण या बैंक से ऋण। यह कैसी संस्कृति का विकास हो रहा है। हमने एक सीधी सादी सांस्कृतिक परम्परा के खोल में रिश्वत, कमीशन का नया काम शुरु कर दिया है।