#काव्योत्सव kavyotsav 2 जीवन
बनैली चाहतें
ख्वाहिशों के प्रेत कुछ
और चाहतें बनैली
संग मेरे रही चलती
मैं कहां कब थी अकेली!
भस्म कुछ परछाइयों की
मस्तक चढ़ाए फिर रही
धूप-छाँव सी ज़िन्दगी
हरदम रही बनकर पहेली।
आत्मा के दाग कुछ
भावनाओं के संगुफन
परत परत चढ़े अनुभव
मौन ही मन की सहेली।
चीरती आकाश को जब
बिजलियाँ उस पार तक
मन उड़ा करता असीमित
छोड़ पीड़ा की हवेली।
वासना के फेर में
जब पड़ गई मृदु चाहतें
नेह की राहें अचानक
हो गईं कितनी कसैली।
आज जो कल था वही
होकर यहाँ भी ना रही
बस यूँ ही फिरती रहीं
चाहतें मन की बनैली।
भावना सक्सैना