#काव्योत्सव 2
(सामाजिक)
पिछले दशकों में
पिछले छ: दशक से
महीना-दर-महीना
कमा रहे हैं बाबा मेरे
फिर भी लाखों बाबा
नहीं पहना पा रहे
अपने बच्चों को
पूरे कपड़े
वो फिर रहे हैं नंगे
इन सर्द गलियों में
पिछले पाँच दशक से
व्यंजन-दर व्यंजन
पका रही है रसोई में
मेरी अम्मा
फिर भी लाखों माँए
नहीं दे पाती है
अपने बच्चों को
भरपेट खाना
पिछले चार दशक से
पारी-दर-पारी
मेरी बड़की बहन
लिख रही है
बच्चों की स्लेटों पर
हाथ पकड़ कर्
फिर भी सैकड़ों बच्चे
नहीं देख पा रहे
स्कूल का मुँह भी
पिछले तीन दशक से
अस्पताल-दर-अस्पताल
मेरा भाई
बाँट रहा है दवाइयाँ
आम आदमी के लिए
फिर भी सैकड़ों लोग
तोड़ देते हैं दम
इलाज के अभाव में
पिछले दो दशक से
किश्त-दर-किश्त
मेरे पति
बाँट रहे हैं ऋण
सरकारी खातों से
ज़रूरत मन्दों को
फिर भी आर्थिक मार से
ना जाने कितने लोग
कर लेते हैं आत्महत्या
पिछले एक दशक से
मेरी भाभी
कानों में
हीरे के झुमके पहन
छम्मक-छल्लो सी
घूम रही है घर में
और सैंकड़ों लोगों के
मुँह तक निवाला भी
मुश्किल से
पहुँचा रही है
ये हीरे की खदानें
पिछले एक वर्ष से
पृष्ठ-दर-पृष्ठ
मैं भी लिख रही हूँ कविता
कम्प्यूटर पर
इंटरनेट के सारे रास्ते
जान गई हूँ
की-बोर्ड दबा-दबा कर
ब्लॉग बनाने की रवायतें
और फेसबुक पर
अच्छे दोस्त तलाशने की
मुहिम छिड़ी है
और मेरे आस-पास की
गृहणियाँ तो दूर की बात है
मेरे पूरे मोहल्ले में
इस कोने से उस कोने तक
इस गली से उस पार तक
नहीं है मुहैया
बच्चों को भी
एक अदद कम्प्यूटर !!