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सुधाकर मिश्र ” सरस ”

सुधाकर मिश्र ” सरस ”

@sudhakarmishra191849
(8)

नया साल

साल नया पर बात पुरानी
सारे जग की यही कहानी
जैसा था बस वही हाल है
फिर काहे का नया साल है
अंक है बदला राह वही है
सबके मन की चाह वही है
अब भी सबकी वही चाल है
फिर काहे का नया साल है
हम हैं चाहते सुधरे दूजा
ध्यान कहीं जब करते पूजा
फिर भी ना कोई मलाल है
फिर काहे का नया साल है
मन की मैल नहीं छूटी है
आशा किरण नहीं फूटी है
पूर्वाग्रह का वही हाल है
फिर काहे का नया साल है
समय सारणी निश्चित करते
पूर्ण न होती एक भी शर्तें
अब तो समझो बुरा हाल है
फिर काहे का नया साल है
आपस की कटुता हम भूलें
अच्छाई के शिखर को छू लें
चिर नवीन नूतन खयाल है
स्वागत वंदन नया साल है

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चाय का प्याला

दिन उदित हुआ मन मुदित हुआ , जब मिला चाय का प्याला
आलस संग भागी सुस्ती , मन मोर हुआ मतवाला
बिखरे मनके करे एक , बन जाए सुंदर माला
अदभुत सा यह करे काम , फिर वही चाय का प्याला
नयी योजना हो या कोई , विचार हो दिलवाला
इनका उत्तर मिले तभी , जब दिखे चाय का प्याला
देशी हो या विदेशी मुद्दा , या लगे सोच में ताला
जित देखो उत चाय पे चर्चा , फिर वही चाय का प्याला
सब का मेल कराए जग में , ज्यों करे प्रेम की हाला
हर उलझन को सुलझाती , बनकर कुंजी और ताला
एकदूजे के कब बनते , पहनते कब वरमाला
गर ना होती चाय पे चर्चा , ना होता चाय का प्याला

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प्रेम

पढ़ा था बहुत प्रेम को पुस्तकों में
गया भूल सब तुमसे मिलने के बाद
नया था सिलेबस नयी थी कहानी
नहीं काम आया सबक था जो याद
लकीरों पे चलना नहीं प्रेम होता
नया हो फ़साना नयी हो कहानी
अर्पण हो तन मन समर्पित हो जीवन
रहे प्रेम पावन चढ़े हर ज़ुबानी
नयी हो चुनौती और मानक नये हों
नई भूमिका हो कथानक नये हों
तब प्रेम लिखता है नूतन कहानी
जो सदियों तलक़ गायी जाती ज़ुबानी

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राम

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तुम याद बहुत आते हो राम
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रामराज्य की माया रचकर
जड़ चेतन के हिय में बसकर
ऊँच नीच का भेद मिटाकर
निर्बल दीनों को अपनाकर
प्रतिपल करते अद्भुत काम
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तुम याद बहुत आते हो राम
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अपनी बड़ी बड़ाई छिपाकर
मृदुल मधुर मुस्कान दिखाकर
सभी जीव का चित्त चुराकर
जड़ चेतन को अपना बनाकर
जाने कौन गए तुम धाम
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तुम याद बहुत आते हो राम
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मात - पिता के आज्ञाकारी
भ्राताओं पर तुम बलिहारी
गुरुजन वृंद के तुम आभारी
प्रजा जनों के तुम हितकारी
नित नवीन गढ़ते आयाम
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तुम याद बहुत आते हो राम
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अब तो बस हर ओर दिखावा
एक - दूजे संग मात्र छलावा
बिन भूडोल निकलता लावा
बिन अधिकार ठोंकते दावा
चतुर्दिक छाया "मैं" का नाम
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तुम याद बहुत आते हो राम
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सुधाकर मिश्र "सरस"

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वीर जवान

चला दूर तुमसे मां जन्नत को तज के
मेरा हौसला बनके तुम साथ रहना
कदम डगमगाये अपने याद आयें
बनके रवानी रगों में तू बहना
है खूँ तेरा मुझमें जो देता है शक्ति
जीजाबाई माँं बन हृदय में धड़कना
तेरे दूध की लाज कायम है रखना
सिंहनी का मैं हूं लाल साबित है करना

कसम है बहन की कहे ये कलाई
कई गोली सहकर भी ना डगमगाई
थी राखी की ताक़त नया जोश छाया
थी टूटी कलाई पर तिरंगा लहराया
मेरे देश की हर बहन की मैं आशा
फिर कोई दर्द कैसा और कैसी निराशा

था निकला मैं घर से रखा हांथ सर पे
मेरी आस हो तुम मेरा मान रखना
धरा ना लजाये कोई आंच अाये
मिटा अपनी हस्ती खुद को परखना
लगा मुझको मेरी है अंतिम विदाई
पिता ने मुझे यूं गले से लगाया

मेरा हाँथ कटकर गिरा जब जमीं पर
मुझे यूं लगा भाई रूठा है मुझसे
मुझे माफ कर देना माँं भारती तू
बस इतनी सी सेवा ही मैं कर सका हूं
मुझे नींद जोरों की आई है ऐ माँं
मुझे गोद में तू सुला लोरी गाकर
था वादा किया मां से आते - आते
मिले गोद मुझको यही हर जनम माँं

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#Rakshabandhan

महीना सावन का दिन पावन रक्षाबंधन का त्योहार है
भाई - बहन के प्रेम की गंगा की बहती रसधार है
हर भाई की सजी कलाई पर बहनों का प्यार है
हर राखी के बदले भैया पर वचनों का भार है
ना जाने गमगीन बहन कितनी बैठीं उस पार हैं
थाल सजाये राखी की सजल नेत्र खड़ी द्वार हैं
हम सबकी राखी की खुशियाँ उन बहनों की उधार हैं
सरहद पर जिन बहनों के भैया ने दिया सब वार है
बिन भाई के बहनों की राखी करना गुलज़ार है
यही सनातन धर्म है और यही सनातन सार है
युगों - युगों से सीख सिखाता यह पावन त्यौहार है
स्वस्थ मधुर संबंधों की जड़ भाई - बहन का प्यार है

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बचपन की याद सतावै

सावन की ऋतु आई सखी,बचपन की याद सतावै।
सावन की कजरी और झूले की,प्यारी सुध ललचावै।।
याद आयें बचपन की सखियां,गुड्डे - गुड़ियों के व्याह रचावैं।
वो दिन फिर नहीं आयेंगे , यह सोच अखियाँ भर आवैं।।
पल में कट्टी पल में मिठ्ठी, पर प्रेम नहीं मुरझावै।
कल खेलन जरूर आना सखी , यह कसम लेके घर जावै।।
बचपन बीता आई जवानी, जो सतरंग सपने दिखावै।
सबके बीच अकेलापन लागे, पर दिल मन ही मन गावै।।
व्याह दिया परदेश में बाबुल, परदेशी संग जिया लहरावै।
भूला बचपन भूली सब सखियां, दिन सुख ही सुख के आवै।।
सावन की पहली फुहार में , भीगा बचपन याद आवै।
मन कसके और दिल तड़पे, काश वो बचपन फिर लौट आवै।।


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मिलन की आस

सावन की शीतल फुहार , तन - मन झुलसाए बार - बार
मन में छायी घनघोर घटा , अंखियाँ बरसायें जल अपार
कितने ही युग अब बीत चुके , कर - कर हारी मैं इंतज़ार
इस सावन अब होगा मिलन , इस आस में तकती रहती द्वार
एक सुबह रात की होती है , इस रात का कोई अंत नहीं
इतनी भी परीक्षा मत लो तुम , क्या मेरा प्यार जीवन्त नहीं
अब आन मिलो तुम हे प्रियवर , मेरी प्रीत न तुम बदनाम करो
प्रीत किए दुख मिलता है , इस चलन पे अब तो विराम धरो
जीत प्रीत की होती है , इस सत्य का अब ऐलान करो
प्रेम है पूजा ईश्वर की , इस सर्वसत्य का मान धरो

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सुधाकर मिश्र "सरस"

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देश - सेवा

देश की चिंता तुम्हे है,जानकर अच्छा लगा।
एक जागरूक इंसान में,भाव है अच्छा जगा।।
कर्तव्य रत हो देश के प्रति,किंतु पहले यह करो।
अपनों की चिंता करो और,ध्यान भी उनका धरो।।
मधुर हो संबंध,शिकवा और शिकायत ना रहे।
हमसाया,होकर रहें खुश प्रेम की गंगा बहे।।
हम जिएं और जीने दें,औरों को भी अपनी तरह।
खोल कर रख दें सभी,यदि मन में हो कोई गिरह।।
पहले बदलें खुद को,हर अंदाज़ बदल जाएगा।
देश की सेवा का फिर,अलग ही मज़ा आएगा।।

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सुधाकर मिश्र "सरस"

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भारत माता

बलिदान जहां परिभाषित हो
कर्तव्य जहां अनुशासित हो
जहां कण - कण में भगवान है
उस पावन धरती की हम संतान हैं
जिस धरा की माटी चंदन है
उसे कोटि - कोटिशः वंदन है
धर्म धरा है सच्चाई का वितान है
उस पावन धरती की हम संतान हैं
जहां अखिल विश्व परिवार है
ना ही जीत ना किसी की हार है
गीत अलग पर एक सभी की तान है
उस पावन धरती की हम संतान हैं
जहां धरा को मां कहते हैं
आन में इसके सब सहते हैं
जिस पर मिट जाने में अपनी शान है
उस पावन धरती की हम संतान हैं


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