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shiv bharosh tiwari

shiv bharosh tiwari

@shivbharoshtiwarigmail.co


*ज़िन्दगी रही जस की तस*

हुश्न-कुड़ी ने दावत कराया
इश्क़ के घर चावल पकाया
चाँद-कुड़ी ने थाली सजाई
चाँदनी अपनी सुरा मिलाई।

धरती के गहरे दिल के इतर
आकाश की गड़ी तीरे-नज़र
फूलों का जब दिल धड़का
झट भवरों ने बाहों जकड़ा।

उम्र के पन्ने पर लिख गया
तकदीरों को कौन पढ़ गया?
क़िस्मत लिख गई नग़मों में
जीवन बीता किन चकमों में?

कल्प-बृक्ष की छाँव में बैठे
दोहनी भरने कामधेनु ऐठे
हर्फ़ बदन से आती महक
कोयल ध्वनि जाती चहक।

सपनें नींद आकर महकते
यादें के रस होंठ चहकते
बरसों की हम चीरते राहें
हसरत अपनी फैलाएं बाहें।

जिंदगी की ओढ़नी सिले
पर शहनाई से नही मिले
मिलना हथेली के बूंद कस
ज़िन्दगी रही जस की तस।
रचनाकार:-शिव भरोस तिवारी 'हमदर्द'
सर्वाधिकार सुरक्षित
01/01/2021

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चित्रकूट
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इस शहर में बसंत अचानक आता है
मैंने कई बार देखा है बसंत आते हुए
जब आता है तो उठता है धूल का बवंडर
इस महान पुराने शहर के बीच बने
रामघाट की जीभ किरकिराने लगती है।

आदमी रामघाट पर जाता है
आखिरी पत्थर के माँथे पर
बैठ कर मुलायम हो जाता है
घाट की सीढ़ियों पर बैठे बंदरों की आंखों में
एक अजीब सी नमी दिखाई देती है
एक अजीब-सी चमक भर जाती है
सीढ़ियों में बैठे भिखारियों के कटोरों पर
श्रीराम पर्वत की परिक्रमा करते वक्त
मैंने कई बार भिखारियों के खाली कटोरों में
बसंत को उतरते देखा है।

परिक्रमा के द्वार सदा ऐसे ही खुलते हैं
आदमियों का हुजूम नारियल के छिलके
जूता चप्पल से भरे बोरे के गट्ठर
आदमियों के कंधों में बच्चों का बोझ
कूदते फाँदते पीछा करते बंदरों के झुंड।

यह शहर अंजाना नही है
इस शहर में लोग धीरे धीरे चलते हैं
मझगवाँ से आतीं हुईं
हिचकोले खातीं खटारा बसें
धीरे धीरे बगदरा घाटी से उतरती हैं
रह रह कर बजती हैं यहाँ घण्टियाँ
धीरे धीरे सूरज ढलता है
धीरे धीरे उड़ती है धूल
धीरे धीरे सुनाई देती है इस शहर में
एक साथ होने की लय
दृढ़ता से बांधें हुए है इस शहर को
धीरे धीरे यहाँ पर आने वाली भीड़
धीरे धीरे भरते हैं भिखारियों के कटोरे।

धीरे धीरे बिखरती है यहाँ
मंदिरों के मुंडेरों में चाँदनी
धीरे धीरे चढ़ते हैं लोग हनुमान धारा
धीरे धीरे बहती अनुपम गुप्त गोदावरी
धीरे धीरे दिखते हैं पंचमुखी हनुमान
धीरे धीरे रामघाट की सीढ़ियों को छूकर
बंदन करती है पबित्र पयसुनी सरिता
धीरे धीरे बहती हैं यहाँ नावें
धीरे धीरे खुलतीं हैं मन की आँखे
धीरे धीरे दिखती हैं मानस रचयिता
तुलसीदास की खड़ाऊँ
जो यहाँ रखीं हैं सैकड़ों बरसों से।

अदभुत है चित्रकूट के पर्वतों की बनावट
हर जगह श्री राम के चरण की पादुकाएं
भाई भरत मिलाप की सुंदर सी कुटिया
मनभावन माता सती अनुसुइया की रोसाईयाँ
अनेक सरिताओं के जल से भरा भरतकूप
देखते बनती है यहाँ की आरती आलोक
मंत्रों की ध्वनियाँ सुन कर्ण बौराते हैं
साधनाओं की गुफ़ाएँ आनंद फैलाती चहुओर
गली गली टंगे यंत्र,मंत्र तंत्र की मालाएँ।

महात्माओं के कर्णप्रिय प्रवचनों की गूंज
मंदिरों के चमकते ऊंचे ऊंचे गुम्बज
हवन के स्तम्भ और ख़ुशबू के स्तम्भ
संतो के उठे हुए हाथों के स्तम्भ पर
खड़ी हैं चित्रकूट की पर्वत शिखाएँ
यहाँ की अदभुत छटाएँ, शिलाएँ, दिशाएँ
किसी अलक्षित सूर्य को अर्घ देतीं
शताब्दियों से इंतजार कर रहीं हैं राम राज्य की।।
पुनः राम राज्य की।।
रचनाकार:-शिव भरोस तिवारी 'हमदर्द'
सर्वाधिकार सुरक्षित
26/12/2020

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हरि हरि अमियाँ
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पूरा बगीचा जग चुका था
फूट रही थी सुबह के सूरज की
हल्की हल्की लाली
सोचा, तोड़ लू
आम के पेड़ से दो चार अमियाँ
मैं तो उन्हें भूल ही चुका था
पर मेरी जीभ में उसके स्वाद
की यादें अब भी हिलोरें ले रही थीं।

फिर चल दिया वहाँ से अकेला ही
सुपरिचित मेड़ों और पगडंडियों के साथ
रेल्बे लाईन को लाँघता-फलाँघता हुआ
पहुच गया गाँव के ऊंचे चबूतरे के पास
जहाँ खड़ा था एक लंबी घनी मूछ वाला
बूढ़ा बरगद का पुराना विशाल बटबृक्ष
कुछ देर उस पेड़ को मैं ध्यान से देखा
साहस कर झुकाई उसकी एक डाल।

बस, मैं। डाल तोड़ने को ही था
की अचानक मेरी दृष्टि वहाँ बैठे
सफेद बाल और झुर्रियों वाले एक
बूढ़े आदमी के ऊपर पड़ी
जो बरसों से यही डाल पर बैठा है
उसे देख हिय में अज़ब की पीड़ा हुई
तोड़ लाया था जो मैं बगीचे से अमियाँ
उसी के हाँथ में सब उड़ेल दी
पूरे रास्ते यह सोचता रहा कि अग़र
नही लाता वो आम की हरी हरी अमियाँ
तो उस बूढ़े आदमी का क्या होता?
रचनाकार:-शिव भरोस तिवारी 'हमदर्द'
सर्वाधिकार सुरक्षित
24/12/2020

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मेरे गाँव की नदी
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अगर मैं धीरे चलता हूँ
तो उसको पकड़ लेता हूँ
अपनी अंजुली में भर लेता हूँ
अगर दौड़ने लगता हूँ
तो वो अंजुली से छूट जाती है
अगर उसके साथ चलने लगता हूँ
तो वो मेरे साथ चलने लगती है
करोड़ों तारों, करोड़ों चाँद और
करोड़ों सूरज को अपने विशाल
आँचल में वो समेट लेती है
दुनिया को हथेली में रच लेती है।

लू के प्रचंड थपेड़ों के बाद
जब मैं दोपहर थक जाता हूँ
ताजगी और ऊर्जा की मुझे
बेहद जरूरत होती है तब मैं
उसकी तरलता में गोते लगाता हूँ
वर्ष के उदास दिनों में भी
मेरे गांव की वो भोली नदी
मेरे मन को उत्साह दे जाती है।

पत्थरों के नीचे बालू के ऊपर
चुपचाप वो बहती जाती है
पूरा गाँव जब सो जाता है
तब भी किवाड़ों के कानों से
धीरे धीरे वो अपनी बाँसुरी
के तान सुनाती है
मेरे गाँव के सन्नाटे को
चीरते अबिरल बहती जाती है।।
रचनाकार:-शिव भरोस तिवारी 'हमदर्द'
सर्वाधिकार सुरक्षित
23/12/2020

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रोटी
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आओ सब मिल कर चले
उसे देखे वह कितनी गरिमा
के साथ खुद को तपा रही है
चूल्हे की आग में अद्भुत
सुगंध फैला रही है
आश्चर्यजनक तरीके से पक रही है
उसकी गर्मी आदमी के पेट
और पीठ के तंतुओ में पहुच रही है।

धीरे धीरे वो शिकार होने को
तैयार हो रही है
धीरे धीरे वो और खूबसूरत
होकर सुर्ख़ हो रही है
मेरे हाथ भी उसके शिकार
करने को आतुर हो रहे हैं
मैं जितना उसको तोड़ता हूँ
मेरी भूखग्नि और तेज हो जाती है।

उसके हर कौर पहले कौर से
और ज्यादा स्वादिष्ट लगते हैं
इसका शिकार करने के लिए
आदमी क्या से नही करता
इसके स्वाद की गर्माहट के पीछे
अनंत ब्रम्हांड छिपे हैं
मैंने आज तक इससे ज्यादा
शक्तिशाली शिकार नही देखा।

दुनिया की सारी खुशियाँ
दुनिया की सारी शक्तियाँ
दुनिया की सारी सम्पदाएँ
इसके सामने नतमस्तक हो जाती हैं
इसके आगे सोने की लंका भी
धूर समान है क्योकि यह रोटी है
और रोटी के सामने
अहंकार की भी नही चलती है।।
रचनाकार:-शिव भरोस तिवारी 'हमदर्द'
सर्वाधिकार सुरक्षित
22/12/2020

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उड़ते अखवारों के पन्ने
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अंधियारे की चुप्पी
मुर्ग़ा ने तोड़ दिया
हवा में बिस्तर काँपा
सरिता के तीर गया
किनारे में ओस गिरी
चाँद की आँख फिरी
मूर्छित हुई रात कहीं।

आम के बकीचे में
सुए की चोंच चली
प्रतीक्षा की आंखें पथराईं
कुहरे की बजी बाँसुरी
गुलाबों सी खिली बाहें
सुए की जब चोंच हिली
क्षितिजों तक उड़तीं चिड़ियाँ
पतली पतली शाखाओं सी।

सुबह द्वार पर खट खट
उड़ते अखवारों के पन्ने
साइकिल की घण्टी सुनकर
बच्चे भागे आँख भीजतें
कचड़े वाले कि सीटी सी
पूरे घर की साँसे फूली
दूध वाले का डिब्बा देख
कमरे कमरे पत्नी नाची।।
रचनाकार:-शिव भरोस तिवारी 'हमदर्द'
सर्वाधिकार सुरक्षित
20/12/2020

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*नूतन उपमाओं को*

हवाओं की कूलों पर
बहती सुगंध की पुरवाई
स्मृतियाँ जब डोल जाएँ
मन के कछारों पर
बौरायी चाहत की ध्वनियाँ
झाँक जाएँ संध्या की आँचल में
तुलसी के दोहों में
सपने जब थिरक जाएँ।

आंगन की तुलसी पर
श्रद्धा के दीये-सी
ख़्वाहिश कुमारी हो
अरमानों की खनक
गायों के बछड़ों की बाड़ी सी
थाली बड़ी प्यारी सी
सुंदर सुंदर फूल रखे हों
रोली चंदन और हो घण्टी
छोटे छोटे लड्डू गोपाल
बूड़ी ममता प्यारी हो।

घर की मुडेर में
कौवे की कौं कौं हो
किरणों का स्वागत हो
चिड़ियाँ चहचहाएँ द्वारे पर
छंद, सोरठा, चौपाई खनकें
ऊँघती नींद पहचान जाएँ
नूतन उपमाओं को
रचनाकार:-शिव भरोस तिवारी 'हमदर्द'
सर्वाधिकार सुरक्षित
19/12/2020

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मैं सावन का बूढ़ा बादल
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मैं भटक गया हूँ
सावन का बूढ़ा बादल।
ग़ुलाबी सूरज की नव रश्मियों की
पंखुड़ियों से अटखेलियाँ कर न सका।
प्रदूषित आसमान से शप्त हुआ हूँ
शदियों से सावन की गोदी में
मैं खेलता था
इस सावन मैं भटक गया हूँ।

मेरी पलकों में नव रश्मियों के
अनंत सपनों के डेरे हैं
बिजली की तड़पन है
इस वरस शुद्ध हवाएँ
मेरा साथ छोड़ गई हैं
वह कहीं ठिठक गयीं हैं
ठहर गयीं हैं
जिससे मैं नव रश्मियों से
मस्ती कर न सका।

बंजर होती धरती
ढ़ीली होती हलों से उसकी पकड़
सरिताएँ भी मुँह मोड़ रहीं हैं
संध्या मुझको निहार रही
गायें मुझको बुला रही हैं
बीजों के हलक सूख रहे हैं
ऋतुएँ मानो ख़ुद को भूल चुकी हैं।

कब तक भटकूँगा मैं?
आसमान के उजड़े सपने लिए
बिजली के कड़क सम्हाले
फफके अपने अश्रुओं को थामे
आसमान के चारो ओर
कब से मैं घूम रहा हूँ
नमीं के वास्ते चाँद का
मांथा चूम रहा हूँ
भभकते मन की अग्नि मेरी
कैसे बुझ पायेगी?

जिस धरती से जन्म लिया
जिस धरती में मिल जाऊंगा
जिस धरती की जड़ हूँ मैं
जिस धरती की हूँ मै टहनी
जिस धरती से आती अलका
मैं खुद की प्यास बुझाता हूँ
धरती सूखी मैं कैसे सह पाऊँ?
मैं सूर्य नव रश्मियों से अब
खूब करूँगा अटखेलियाँ
मैं सावन का बूढ़ा बादल हूँ।।
रचनाकार:-शिव भरोस तिवारी 'हमदर्द'
सर्बाधिकार सुरक्षित
19/12/2020

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अर्थो की छाती बैठे पैर जमा कर
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त्रिदेव मिले जब राजभवन में
श्मशानों जैसे सब दीये जलाये
सभी सियार जब शेर बन गए
प्रतिभा को मिल मूर्ख बनाये।

जनता को दुख जनित करके
आस्था को कर रहे स्वार्थ युक्त
पैर जमाये अर्थों की छाती पर
करें स्वर्ण को प्रखरता से मुक्त।

मानवता की भी रूह कपि
सुशांत को जब किये वो शांत,
गंगा की उठती तरंगें भी रोईं
गगन शिखर जब हुआ अशांत।

राज्य की जनता भी उकताई तब
जनता के सीने में जब अनर्थ घोंपा,
चीख़ों की ध्वनियों में डाला पर्दा
लक्ष्य-संघर्ष मार्ग मिल साज़िश रोपा।

संबेदन-सत्यों की पूरी बस्ती में
जब बहने लगे हृदयों के अंगना,
अभिमानी की उखाड़ फेक से
टूटे अरमां, बिखर कई कंगना,

साज़िस के गट्ठे को सिर पर रख
धूलभरी पगडंडियों में चली क़लम,
साहसी प्रेरणा-पुरुष के कंधों से
सच से छिलके निकालते रहे परम।
रचनाकार:-शिव भरोस तिवारी 'हमदर्द'

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*ध्रुबी अंधकार की अमावस्या*

रात चलती है चाँदनी अकेले
एक निर्जन जंगल के बीच
मैंने जमीन खोद कर
मिट्टी के कई लाल ढ़ेले निकाले
निकलते ही ढ़ेले साथ चल पड़े
उनके चलने के स्वर सुनाई दिए
कुछ मधुर कुछ घृणित स्वर
पथ संग जलती थी लालटेनें उदास
बन चुका एक अंधेरे का सेहरा
नही दिख रहा उसका चेहरा
जिंदगी के प्यार का टुकड़ा
प्राण तंत्र का परिचय सुकुड़ा।

चाव के भाव दिख रहे बदरंग
कथ अंत पंथ में बिखरे
ढ़ेले फिक्र से पीछे देखते
गर्म धरती के देह ठहरते
बंजर होता भूमि अधिकार
चलती जा रही खुद राह
ओढ़े एक शौरभ बिहीन चादर
ध्रुबी अंधकार की अमावस्या
भगी जा रही दूर कोमलता
छटपटाती छाती की भवितब्यता
फेक दू पाताली अंधेरे की गुहाओं में
निकाले गए मिट्टी के ढ़ेले
रचनाकार:-शिव भरोस तिवारी 'हमदर्द'

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