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मुश्किल लगता है ************** अंतर्मन की व्यथा सुनाना सच में मुश्किल ही लगता है। कितने ही हैं घाव टीसते पर दर्द दिखाना मुश्किल लगता है। मारी जाती कन्याएँ गर्भ में जीवन देना मुश्किल लगता है। जीवन यदि मिल भी जाए तो गिद्धों से बचना मुश्किल लगता है। आत्मनिर्भर बनाने का दंभ करें पर करना ऐसा मुश्किल लगता है। राशन केवल दे देने से गरीब को उसका जीवन मुश्किल लगता है। समस्याएँ हैं कितनी सारी देश में समाधान यहाँ मुश्किल लगता है। दंभी राजा ही अत्याचार करे जब न्याय प्रजा को मुश्किल लगता है। फूट डालो करो राज की हो नीति तो देशोत्थान मुश्किल लगता है। एक दूजे पर करते रहें दोषारोपण तो साथ निभाना मुश्किल लगता है। जब लकड़ी का गठ्ठर बन जाए तब तोड़ पाना उसे मुश्किल लगता है। उसी तरह यदि सब जन मिल जाएँ फूट डालना बड़ा मुश्किल लगता है। - - - रचनाकार - प्रमिला कौशिक नई दिल्ली 28/3/2023
दिव्यांग ******* इतिहास मिटता नहीं रचा जाता है। जो लिखा जा चुका दर्ज हो जाता है। अजर-अमर होती है आत्मा क्या मिट सके गाँधी महात्मा ? पूरी दुनिया है अंश परमात्मा का कहाँ नहीं है वो सर्वव्यापी ? संपूर्ण संसार का इतिहास व्याप्त है ऐसे ही पूरे संसार में। किसमें है ताकत मिटा दे उसे नक्शे दुनिया से हटा दे उसे। किताबों के पन्नों में जो ज़िंदा है काट कर उसे दिव्यांग बना दोगे क्या ? वाह! नाम तो अपंगों को तुमने दिव्यांग दिया। पर कर क्षत-विक्षत इतिहास को बना अपंग ही दिया। नाम बदल देने से अपंग को अंग मिल तो नहीं गया। ऐसे ही काट-छाँट करने से इतिहास मर तो नहीं गया। फाड़ भी दोगे अगर पन्ने दूसरी किताब से वे झाँकेंगे। तुम्हारी करनी का हिसाब कल को तुमसे वे माँगेंगे। अनश्वर हैं वो तो नश्वरता उनकी कैसे आँकोगे ? यहाँ-वहाँ न जाने कहाँ-कहाँ अंकित है जो ज़र्रे-ज़र्रे में कब तक और कैसे उसे मारोगे ? लिखी जा रही है भूमिका तुम्हारे भी इतिहास की। याद रखेगा ज़माना कहानी तुम्हारे सब प्रयास की। कल आज और कल समय का पहिया चलता ही रहेगा। कल वो, आज तुम, कल कोई और आना-जाना अनवरत चलता ही रहेगा। कर्मों के आधार पर दर्जा तुम्हारा भी तय हो ही जाएगा। इतिहास के पन्नों में नाम तुम्हारा भी दर्ज हो ही जाएगा। आने वाली पीढ़ी द्वारा इतिहास तुम्हारा भी कल पढ़ा ही जाएगा।। - - - रचनाकार - प्रमिला कौशिक नई दिल्ली 5/4/2023
रामनवमी ******** हे राम! हे राम! तुम देख रहे हो न आज तुम्हारे जन्म पर ख़ुशियाँ मनाई नहीं जातीं ख़ुशियाँ मनाने का केवल किया जाता है घिनौना दिखावा। निकाले जाते हैं जुलूस धर्म के नाम पर करते हैं छलावा। तुम्हारे नाम को भुनाने का प्रयास जारी है। पर तुम्हारे संस्कार अपनाना कितना भारी है। तुम पिता की आज्ञा पालन को राजपाट छोड़ चले थे। भरत भाई ले चरण पादुका तिहारी सिंहासन पर रख चले थे। आज देखो तुम्हारे नाम का सहारा ले सत्ता लौलुप, सिंहासन को येन केन प्रकारेण हथियाने में लगे हैं। सत्ता पाने हित दुरुपयोग कर तुम्हारे नाम का देश के नागरिकों को आपस में लड़वाने में लगे हैं। एक ओर रमज़ान का पाक महीना था। तो दूजी ओर पावन नव देवियों का नवरात्रि नगीना था। कभी मिलजुल मनाते थे सब एक साथ त्यौहार। किसी ने उकसाया और मच गया हर ओर हाहाकार। हे राम! आज रामनवमी पर समूचा देश हो रहा शर्मसार। हे मर्यादा पुरुषोत्तम राम! तुम्हारी मर्यादा को ये कर रहे तार-तार। अब तुम बंद कर दो इस धरती पर जन्म लेना बार-बार। आना ही हो तो आओ लेकर अवतार ताकि कर सको तुम दुष्ट दानवों का संहार।। - - - - - - - - - - - - - - - रचनाकार - प्रमिला कौशिक नई दिल्ली 31/3/2023
कारीगर मेरा प्यारा साथी, बहुत बड़ा है कारीगर टूटा-फूटा कर दे ठीक, बड़ा है बाजीगर। टूटे दिल भी जाने कितने, उसने जोड़े हैं अनगिनत भ्रमित, रिश्तों के रुख मोड़े हैं। घर के बर्तन हों, नल, फ़्रिज या हो फ़र्नीचर कर कर के मरम्मत, दुरुस्त वह कर देता। चप्पल- जूता कुछ भी हो, प्रतिभाशाली वो पड़े ज़रूरत तो वस्त्र भी सिलकर दे देता। जोड़ने का एक द्रव्य, एमसील जो होता है उस से मेरे मीत की, मानो जन्मों की है प्रीत। कोई भी सामान हो टूटा, उस से जुड़ जाएगा मानेगा वो उसको, जैसे सबसे बड़ी है जीत। अनजाने में टकराया था, प्याले से प्याला उस टकराने में, चटक गया था एक प्याला। बजने लगा मन-सितार का द्रुत-लय झाला न था कोई ग़म, भले छलक गई थी हाला। सुनके झंकार, अगले ही पल प्रियतम आया जानके प्याला चटका है, था ख़ूब वो हर्षाया। बहुत दिनों के बाद, उसे अब काम मिला था मन-मयूर नाचा, और मुख-कमल खिला था। मनोयोग से जुट गया था, वह अपने काम में तपस्वी खो जाए सब भूल, जैसे राम-नाम में। लैंस से भी दिखती नहीं, बारीक सी दरार है वह बोला! जुड़ गया देखो, आ गया करार है। अरे! चटका प्याला तो अब भी चटका है तुमने तो साबुत प्याले को ही जोड़ दिया। पूरा हैंडिल तो दरार पर, देखो अटका है इसको तो तुमने वैसे का वैसा छोड़ दिया। दोनों प्याले एक दूजे को निहार रहे हैं ऐसे रोएँ या हँसें ? मन में ये विचार रहे हों जैसे। अंतत: वे दोनों ही ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे। हँसते - हँसते दोनों ही लोटपोट होने लगे।। - - - अभिव्यक्ति - प्रमिला कौशिक 19/2/2023 दिल्ली
(रचनाकार - प्रमिला कौशिक) हमसफ़र मेरा जो हमसफ़र है मुझे जान से भी प्यारा है। है उसे भी लगाव मुझसे जहान में सबसे न्यारा है। कहीं भी जाए वह अपने साथ मुझे ले जाता है। देता है भरपेट भोजन पीने को भी कुछ दे जाता है। पूरी-सब्जी, कभी आलू-पराँठे चिप्स-बिस्कुट मिलते हैं खाने को। पानी, फ्रूटी, कोकाकोला तो कभी जूस भी मिलते पीने को। वस्त्र, मंजन, साबुन, इत्र और मेरे जूतों का भी वह ध्यान रखे। कंघा, क्रीम, दवा यहाँ तक लैपटॉप मोबाइल का भी मान रखे। बाहर जाने पर वो मेरे दरवाजे-खिड़की बंद कर देता। धूल न जाए श्वास तंत्र में मेरे हित सारे उपाय कर लेता। लेकिन घर आने पर मेरे द्वार-झरोखे खोल सब देता। बिस्तर पर फिर लेट आराम से साँस मैं भी खुलकर तब लेता। पैरों में मेरे स्केट्स लगाकर मुझे सड़क पर नहीं चलाता है। मेरा सिर अपने कंधे पर रख कभी हाथ पकड़ ले जाता है। समझ गए होगे अब तक तो हमसफ़र का कौन हूँ मैं ? दिल के करीब कंधे पे लटका प्रियतम का प्रिय बैग हूँ मैं।। - - -
22/11/2022 बाज़ार (रचनाकार - प्रमिला कौशिक) रिश्तों का बाज़ार लगा है देखो कितना कौन सगा है। रिश्ते भी सामान हो गए सस्ते कितने अरमान हो गए। हर रिश्ते का मोल लगा है स्वर्णाभूषण दे, ले जाओ यह रिश्ता खनकते सिक्के दे सकते हो तो ले जाओ यह कीमती रिश्ता। हर एक रिश्ते का अनुबंध है कोई सेवा देकर ख़रीद लो यह रिश्ता। करो या न करो, दिखाओ प्यार तो भी बिक जाता कोई भी रिश्ता। जैसे ही अनुबंध ख़त्म हो जाएगा हर रिश्ता अपनी मौत मर जाएगा। जीवन में जो रिश्ता था अनमोल बस शेष वही रिश्ता रह जाएगा। - - -
रचनाकार - प्रमिला कौशिक (14 नवंबर 2022) 🎉🎉🎉🎉🎉🎉 🌷🌷🌷🌷🌷🌷 बालदिवस की बधाई 🎊🎊🎊🎊🎊🎊 🌹🌹🌹🌹🌹🌹 चाचा नेहरू ने दी बच्चों को सौगात जन्मदिन अपना बालदिवस बनाया। बालकों की ख़ुशी की न रही सीमा बालदिवस सबने यूँ हर वर्ष मनाया। चाचा नेहरू को करते हम धन्यवाद बालदिवस की सबको ही है बधाई। खेलो कूदो मौज करो संग मिलकर जो भी मन भाए खाओ ख़ूब मिठाई।। 💃🏌️⛹️🚴🤹🤼 🏇🏋️🏊🤸🤺🤾 🎂🎂🎂🎂🎂🎂 🎁🎁🎁🎁🎁🎁 🍧🍧🍧🍧🍧🍧 🍟🍟🍟🍟🍟🍟 🍹🍹🍹🍹🍹🍹
10/11/2022 रचनाकार - प्रमिला कौशिक पुल बिन नाव के सबको पार उतारता था मैं। पर आज डुबोने का बदनाम हो गया मैं। निर्माता ने मेरे, गढ़ा मुझे था, जी जान से। मज़बूती से पैर जमाए खड़ा था मैं शान से। धीरे-धीरे उम्र मेरी भी बढ़ती अब जा रही थी। और शक्ति मेरे तन की घटती ही जा रही थी। जैसे बुज़ुर्गों के अंगों की मरम्मत व प्रत्यावर्तन किया जाता है। वैसे ही मेरे जीर्णोद्धार का भी निर्णय लिया जाता है। एक अयोग्य कंपनी को अब ठेका जीर्णोद्धार का दे दिया गया था। पुराने अंगों को मेरे बदलने की बजाय बस रंग से चमका भर दिया गया था। सतह को मेरी लकड़ी की बजाय एल्यूमीनियम से ढक दिया गया था। इस आवरण से तन मन मेरा मनों टनों भारी हो गया था। कैसे सँभालता मैं लोगों का भार जब अपना ही सँभाल नहीं पा रहा था। पुल टूटने से मरे बहुत से लोग, और दोष ईश्वर के मत्था मढ़ा जा रहा था। जिनके जिम्मे था मेरी मरम्मत का भार उन्हें दृश्य से ही गायब किया जा रहा था। बेचारे छोटे छोटे थे जो कर्मचारी निर्दोष गिरफ्तार उन्हें ही किया जा रहा था। आख़िर क्यों छूट जाते हैं, रसूखदार दोषी मेरे देश का ऐसा, यह हाल क्यों है ? पूछता हूँ मैं सवाल, ऐसे मुद्दों पर सत्तापक्ष आख़िर, सदा मौन क्यों है ? * * * * * * * * * * * * * * * * * * *
दृश्य इतना ख़ूबसूरत लगा कि मैंने कार में बैठे बैठे ही पहले यह फ़ोटो खींचा और फिर भावाभिव्यक्ति ने रच डाली यह छोटी सी कविता।- - - सुनहरा आँचल - - - - - - - - - - (रचनाकार - प्रमिला कौशिक) तारकोल से यह बना रास्ता लगता था काला साया सा। सूरज ने अपनी किरणों से आँचल सुनहरा फैलाया सा। अब तो प्रतीत होता है ऐसा ज्यों नदी बह रही सोने की। सूरज की प्यारी धरती की हो ज्यों चाह पिया में खोने की। सूरज का सुंदर मुखड़ा देखो निहार धरा को कैसे मुस्काए है। नज़रों से नज़रें मिलने पर स्मित वसुंधरा कैसे लजाए है।
रेलगाड़ी... भावों की - - - - - - - - - - - - - - रेलगाड़ी भावों की चलने लगी अनेक दृश्य अच्छे - बुरे कई स्टेशन गाँव - शहर छोटे - बड़े रुकती है चलती है इंजन भी बदलती है। भावों की रेलगाड़ी तेज़ है रफ़्तार। छुक छुक छुक छुक चलती ही जाती है। कविता में बदलती है। दुःख है सुख भी है करुणा है स्नेह है शांत भी है क्रोध भी है बच्चों सा वात्सल्य भी ईर्ष्या भी है द्वेष भी है घृणा का है भाव भी बातें घर की परिवार की समाज की देश की भी देश की राजनीति भी। समेटे ख़ुद में सारे राहगीर चलती ही जाती है। भावों की रेलगाड़ी चली तो चलती ही जाती है। ---- अभिव्यक्ति - प्रमिला कौशिक
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