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माँ जीवन से संघर्ष आज कर रही है। हिम्मतवान माँ आज बिखर रही है। माँ मुश्किलों से लड़ी आज डर रही है। माँ दुःख से हारी पल पल मर रही है। माँ के जीवन में नित्य पतझर रही है। माँ हमें संस्कार देने में कारगर रही है। माँ जीवनभर बुरे कर्मों से पर रही है। माँ नेकी पर चलनेवाली रहबर रही है। माँ भलाई के लिए सदा तत्पर रही है। माँ मेरे पूजनीयों में सबसे ऊपर रही है। माँ की तस्वीर कविता में उभर रही है। 'अनीस' माँ की मायूसी अखर रही है। -दिपेश कामडी अनीस
इंसान की पहचान है ईमान। सच सामने लाती हो जबान। एक एक वाक्य हो संविधान। सदा सात्विक हो खान-पान। कल्याण हेतु दे जो बलिदान। जगत में फैलाये जो सद्ज्ञान। मानवता को ही समझे शान। शरणार्थी को दे जो अभयदान। परार्थी कहलाता जग में महान। 'अनीस' गुणियों का गाता गान। -दिपेश कामडी 'अनीस'
कठीन काल अभी अभी तो शहनाई देती थी सुनाई और अब यह वहीं से आती रुलाई? अभी अभी तो जा रही थी वरयात्रा और अब उस पथ पर अंतिमयात्रा? अभी अभी गूंज रहे थे सौहाग गीत और अब यह विदारक शोक गीत? अभी अभी तो हो रहा था जन्मोत्सव और अब यह आ रहा मातम का रव? अभी अभी आँगन से हुई कन्या विदाई और अब उसी आँगन से ली जग विदाई? अभी अभी तो कह रहे शुभ घड़ी आई और अब कह रहे हो कठीन काल है भाई? अभी अभी तो कह रहे थे "गले मिलो भाई।" और अब कह रहे हो "दूर रहने में है भलाई?" अभी अभी तरक्की की कर रहे थे बड़ाई और अब काम न आई आपकी एक भी दवाई। अभी अभी इनसानियत की दे रहे थे दुहाई और अब 'अनीस' हो रही है इसकी खराई।
घर बचपन का खेल बचपन का ख्वाब एक अपना घर हो। घर से दूर जाऊँ मेरा बड़ा काम हो। बड़ा नाम कमाऊं। जग में नाम हो। घर हर दिन चहल पहल हो। छोटा सा घर धीरे धीरे महल हो। घर में बीबी हो और बच्चा हो। घर में प्रेम हो और सच्चा हो। घर में रोज महेमान का आना हो। घर में रोज अच्छा खाना हो। घर में रोज रोज प्यार करने का बहाना हो। बचपन का खेल समय की रेल। स्मृतियों को रहा पीछे धकेल। घर की छत उड़ गई। नीचे की जमीन उखड गई। दीवालें गिर गई। घर बिखर गया। घर खाली-खाली, सूना-सूना। सुनाई नहीं देता हँसना। न चहचहाना, न किसीका बोलना। न किसी का आना। न कहीं बाहर जाना। सुनाई देता रह रहकर जोर से चिल्लाना । फूटफूट कर रोना। घर अब दे रहा है ताना। -दीपेश कामडी 'अनीस'
आजकल ---------- "मैं क्या कर रहा हूँ ? आज कल? यही आपका पूछना है ना?" "क्या बताऊँ मैं? क्या कर रहा हूँ मैं? आज कल? कुछ पता नहीं है। असमंजस में हूँ। कि मैं क्या कर रहा हूँ आज कल? मुझे हो क्या गया है? कुछ कह नहीं पाता। आज कल । खुद मैं खुद से प्रश्न कर रहा हूँ। आखिर मैं क्या कर रहा हूँ? किधर जा रहा हूँ? किस लिए? आखिर क्या है ? फिर खुद मैं इन प्रश्नों के उत्तर नहीं दे पाता। आखिर क्यूँ? मेरा मन बिना उत्तर पाये उदास होकर मुझ में कहीं जाकर छुप जाता है। आज कल । फिर वहीं मैं बैठा होता हूँ। बेमन से। बेवजह, एक वजह की आस में । जो मुझे मिले। और मैं तत्क्षण उत्तर दूँ कि मैं क्या कर रहा हूँ? आज कल? विक्षिप्तता मुझ पर हावी है। खुद के प्रश्नों के घेरे में खुद को खड़ा पता हूँ। भयभीत हूँ मैं। अनायास ही उठ रहे प्रश्नों से। इन प्रश्नों के उत्तरों की खोज में अपने आपको खोया पाता हूँ। आज कल। एक धन-धनाता उत्तर दूँ। जो गोली की तरह हो। जो प्रश्नों के सीने को छलनी करता आरपार हो जाये। मैं भी सार्थक प्रश्न की तलाश में बैठा हूँ अकेला। आज कल। एक ऐसा प्रश्न जो मैं प्रश्नकर्ता से करू? प्रश्नकर्त्ता स्वयं खुद से प्रश्न करने लगे। आज कल। -दीपेश कामडी 'अनीस'
जगत में जन्मा जीव जीवनभर जश्न मनाते कब जीया? जीव ने जगत में जनम रोने के साथ ही लिया। जो जन्मा है जीवन जहर का एक घूँट सभी ने पिया । आना और जाना चल रहा शाश्वत सिलसिला। मत सोचो हमें-तुम्हें यहाँ आकर क्या मिला? कौन भला जीव है जो जिसने दुःख नहीं झेला? जीवन जंग में जीव जद्दोजहद करता अकेला। मद, माया, मोह, मत्सर ने मनचाहा दाव खेला। चारों ओर चोरों का जोर शोर, जग लुटेरों का मेला। बेफिकर हो जीवन जी ले समझ यही है उचित बेला। -दीपेश कामडी 'अनीस'
मेरे पिता के लिए इसके सिवा ओर कुछ अर्ध्य नहीं दे सकता.... मुझे माफ़ कर देना, मेरे पापा। जब मैं खोल पाता अपना आपा। तब तक तो आपने ऊपर का रास्ता नापा। मैंने आज तक आपका नहीं किया कभी भी श्राद्ध। नहीं लगता कर रहा हूँ अपराध। नहीं कहता, कि वास्ता नहीं, आस्था नहीं । ना याद तिथि, ना पता विधि। ना मन में मूरत है, ना यादों में सूरत। रीति रस्मों सिखाने, जीवन राह दिखाने। नीति, भीति बताते पास रहकर अपनापन जताते। कुछ वक्त तो मेरे साथ बिताते। मेरे पास कुछ यादों की पूड़ियाँ छोड़ जाते। जब अकेला होता, तन्हा होता जब मायूस होता, उदास लम्हा होता जब मैं रोता, तब आपको याद कर लेता। अश्रुजल से अर्ध्य चढा देता। अच्छा तो होता आप यादों में आकर सताते। आपकी यादों में बीते पल भाते। कुछ आपके नाम के आँसू तो बहाते। कट जाती किसी भी प्रकार रातें। बता सकता आपकी कुछ भी बातें। कुछ देर और रुक जाते। कुछ भाग्यशाली तो कहलाते। कुछ भी कर मन को बहलाते। अच्छा होता कर सर पर सहलाते। बस दीप के दिल में रखी है ज्योत जलाये। @दीपेश कामडी 'अनीस'
हे प्रभु ! पापी को सजा दो हे प्रभु ! पापी को सजा दो। अपराधी की चिता सजा दो। आओ पापियों का क़ज़ा दो। युद्धभूमि में हाहाकार मचा दो। आ आकार तांडव रचा दो। जग में सत्य का नाम बचा लो। न तो इसकी हमें रजा दो । निष्ठा हमारे रक्त में पचा दो। जीत की हमें ऋचा दो। सत्य की हाथ में धजा दो। -दीपेश कामडी 'अनीस'
मनुष्य आज बदल गये मनुष्य के करम। भूला दिया गया अपना धरम। मनुष्य होने की भूला दी शरम। मनुष्य मानवता का भूला मरम। आँखें नहीं होती अब उसकी नम। अपने को मारते भी नहीं होता गम। रिश्ते टूटे गये फस कर झूठे भरम। पाप पहुँच चुका है अब चरम। बात-बेबात हो जाता है गरम। कष्ट पहुचाना माना कर्तव्य परम। झूठा ऊहापोह मचाता उद्यम। निष्ठुर, भ्रष्टाचारी, पापी, अधम। -दीपेश कामडी 'अनीस'
वादों में विवाद साहित्य के सारे वादों में विवाद हो गया। आदर्शवाद तन गया गाने लगा तराना। "मैं हूँ सबसे पुराना, मेरा महत्त्व सभी ने माना। "काम है मेरा मानव को सदाचार सीखना। सही रास्ता दिखाना, नेकी पर चलाना।" तुनककर बोला यथार्थवाद: "चल हट जाना, तेरा काम केवल भरमाना।" मैं हूँ जाना पहचाना, काम है मेरा जो है वह दिखाना। मानव को समाज की साफ छबी बताना। वास्तविकता दिखाकर, आँखें खोलना। मानव को अपने पैर जमाना। उड़ते पैरों को जमीं पर लाना।" मार्क्सवाद डंके की चोट पर कहने लगा। "काम है मेरा अमीरी-गरीबी का भेद मिटाना। सबको मिले एक समान रोटी कपड़ा और मकान। गरीबों का हाथ थामा, लूट की बंद हो दुकान।" मनोविश्लेषण वाद ने अपना रहस्य खोला और बोला: "बाताओ तो जरा, मैं भी तो सुनु मन का मर्म किसने जाना? मानव मन ही है मूल। गूँथा मेरे ही आसपास ताना-बाना। कैसे गये मुझे भूल?" सारे वाद प्रतीकवाद, बिम्बवाद, विखंडनावाद, अनुआधुनिकता, प्रयोगवाद वादों के बीच का विवाद बना बड़ा फसाद। क्या देशी क्या विदेशी भला कैसे वादों को समझाना। कोई कवि नहीं चाहता आफत मोल लेना। आ गए कई वाद लेकर सेना। दुनिया का नहीं बचा कोई कोना। काम था सबका अपना अपना। चीटी की तरह चिपक गए, लगे रस चूसने। कवि बेचारा डूबा गहरे अवसाद। सुनाई न दी उसे कविता की नाद। देती थी जो सदा ही भावक को आह्लाद। -दीपेश कामडी 'अनीस'
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