मनुष्य
आज बदल गये मनुष्य के करम।
भूला दिया गया अपना धरम।
मनुष्य होने की भूला दी शरम।
मनुष्य मानवता का भूला मरम।
आँखें नहीं होती अब उसकी नम।
अपने को मारते भी नहीं होता गम।
रिश्ते टूटे गये फस कर झूठे भरम।
पाप पहुँच चुका है अब चरम।
बात-बेबात हो जाता है गरम।
कष्ट पहुचाना माना कर्तव्य परम।
झूठा ऊहापोह मचाता उद्यम।
निष्ठुर, भ्रष्टाचारी, पापी, अधम।
-दीपेश कामडी 'अनीस'