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१ यकायक नहीं, एकदम दबे पाँव धीरे-धीरे मृत्यु सरक गई मेरे देह से। फिर सबकुछ अपनी-अपनी जगह लौट गया: पहले पसलियाँ, फिर मांस, और फिर तो पूरी की पूरी चमड़ी भी सिर्फ़ एक चीज़ लौटना भूल गई आवाज़। शब्द अपनी जगह नहीं पहुँचे, और भाषा वहीं अटकी रह गई मौन में। उसी पल मैंने घुटन की पहली सबसे सच्ची झलक देखी। २ जीवन अक्सर लौटता है अपने उसी वक़्त में जहाँ उसकी पहली बनावट हुई थी। और इसी वापसी में हम थोपने लगते हैं कुछ झूठी अफ़वाहें। मोक्ष — उसी अफ़वाह का सिर्फ़ एक क्षणभर की कल्पना है। ३ सबसे आसान दिनों में ही सबसे भयानक दृश्य सामने होते हैं; घुटन बस उनकी कोख में छिपी रहती है जब तक स्मृति अपनी चाल न चल दे। ४ मैंने रस निचोड़ा, रूपक खंगाले, पर लिख नहीं पाया अप्रत्याशित घुटन का कोई भी पर्याय। ५ और अब, जब विचार सूखते जा रहे हैं सिगरेट के जले निकोटीन में घुटन मुझे साफ़ दिखाई देती है। वह अपराधबोध की कोई आकृति नहीं; वह एक जीती-जागती सच्चाई है कि एक आदमी कितनी शांत तरीके से कूड़ा बन सकता है। @कुनु
उल्टी ———— बचपन में, जब मछली खाते हुए गले में काँटा अटक जाता था, तो मैं मुंह में ऊँगली डाल उलटी करने की कोशिश करता ताकि काँटा अपनी जगह से फिसल कर बाहर आ जाए। आज, ठीक उसी तरह जब मौन गले में फँस गया है, मैं वही पुरानी ऊँगली अपनी ही भाषा में डालकर उसे बाहर खींचने की एक अनगढ़ कोशिश कर रहा हूँ। रूपकों और उपमाओं से भींगी हुई मेरी कविता दरअसल कोई सौंदर्य नहीं— ये केवल एक अपचय मौन की उल्टी है। @कुनु
गाली ——————————————— शोषण की बहुत-सी विधाएँ हो सकती हैं, पर लिपि सदियों से एक तालू। हमें जब भी कहना था स्त्री को स्त्री, हमने उसे कहा देवी, फिर रखैल, बाँझ और राँड। हमें जब-जब करना था सवाल, हमने ओढ़ी मौन— कभी देह पर, कभी विचार पर, और कभी मन पर। हमने भाषा बनाई नहीं, केवल उसका बलात्कार किया। और अब जब भाषा ने मुँह मोड़ लिया, तो हमने निर्लज्जतापूर्वक जंघा पर अपनी कोड़ी के भाव में वर्णमाला खरोंचने लगे। गाली पुरुषों द्वारा स्त्री का दोहरा बलात्कार है। @कुनु
खोज ——————— तुम्हें याद करने का कोई तयशुदा दिन नहीं होता पर आज, सुबह की रसोई में तेल की पहली छनक के साथ ही तुम थी। कपड़े इस्त्री करते हुए भाप की हर हल्की ख़ुशबू में तुम थी। कॉलेज की भीड़ में पीठ पर गिरती धूप के छोटे-छोटे पंखों में तुम ही थी। और फिर जब सूरज डूबने लगा, ठीक उसी क्षण तुम अचानक कहीं भीतर की किसी खोह में ओझल हो गई। मैंने खोजा— कंधे पर रखे बैग में, जेब के पुराने टिकटों में, भीड़ की बेमतलब आवाज़ों में, पर तुम नहीं मिली। हाँ, आँसू मिले। बहुत तेज़ , बहुत बेआवाज़। तुम्हारी खोज का परिणाम हमेशा मुझे थोड़ा और बचा लेता है उस खोखली यकीन से जो कहता है— "मैं मर चुका हूँ." @कुनु
भूख ————————— १) सरकार ने उसे वोट बैंक कहा, निवेशकों ने बाज़ार। आम आदमी ने कहा पेट। कवियों ने उसे कहा मार्मिक कविता। और स्त्री ने कहा — पुरुष के दिल तक जाने का मार्ग। और जिसने कुछ कहने की जगह सिर्फ़ हाथ जोड़कर नमन किया भूख उसी की हो गई। २) भूख जब भी अपनी रीढ़ की हड्डी सीधी की, क्रांति दो-दो रुपये के खुल्ले छुट्टों की तरह सड़कों पर गरकती मिली। ३) अरबपतियों ने कई दफ़ा धन-दौलत बहा दिए, पर वह आई सिर्फ़ उनके हिस्से जिनके पेट में पली थी एक शाम की सूखी रोटी और हज़ार ख़्वाब। ४) देह के लिए वह हुई सिर्फ़ देह, पेट के लिए — क़यामत की आग। और जहाँ नहीं पहुँच सकीं देह, आग या लटकती लार की उपमाएँ — वहाँ वह एक पुल बन गई, जिससे होकर पार हुईं ख़्वाब देखती आँखें। ५) भरे पेट से अपने महल में बैठकर भूख पर लिखना एक बढ़िया व्यवसाय हो सकता है लेकिन भूखे रहकर भूख को जीना सही मायने में भूख पर लिखी सबसे सटीक कविता है। @कुनु
दोस्ती एक मन से दूसरे मन के बीच का संवाद जब स्वेच्छा से स्वीकृत होता है मुस्कुराहट में — तभी वह ले लेता है उपमा दोस्ती की। हम सब इसी उपमा में पिरोए जाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे मोतियों और रेशों से बनती है कोई माला — नाज़ुक, पर पूर्ण। कितनी सुंदर बात है — कि आखिर, सबसे आखिर में जब सब छूट जाता है, सब गिर जाता है, सब थक जाता है, तब भी बचाए जाने का सबसे सरल, सबसे सच्चा मार्ग बचा रहता और वो दोस्ती है।
खाली पेट —————————— एकाकी, खाली पेट, निर्वात की तरह, निचोड़ लेता है समस्त पीड़ा का सार। वहाँ कोई क्रांति नहीं होती, न कोई युद्ध लड़ा जाता है, न कलम चलती है पन्नों पर, न प्रार्थनाओं के लिए हाथ उठते हैं। उस पल, करने को, होने को सभी क्रियाएँ नील बट्टा सन्नाटा, सिर्फ़ एक निर्वाक कक्ष को छोड़, जहाँ विचारों की गति दो कौर अन्न के इर्द-गिर्द गोल-गोल घूमती है। आश्चर्य देखो— अनंत आकाश के नीचे, समस्त सभ्यता का गणित आख़िरकार एक रोटी के समीकरण पर आकर रुक जाता है। @कुनु
१ सीलन पड़ी दीवार पर मृत्यु नहीं पसारती पूरा शरीर, वहाँ वह कई-कई स्वांग रचती है — कभी भूख, कभी बारिश, कभी तीखी धूप, तो कभी फटते बादल। २ जो ज़िंदा हैं वे सब कुछ करते हैं सिवाय जीने के, और जो मर चुके हैं, उन्हें हर सप्ताह वोटर लिस्ट में फिर से दर्ज किया जाता है। ३ मैंने देखा है बूढ़े लोग डरते नहीं मरने से। वे बस धीरे-धीरे सुनना बंद कर देते हैं कि कौन अब भी उन्हें पुकारता है। ४ मुझे डर मृत्यु से नहीं, उसके बाद की अचानक आई शांति से लगता जहाँ कोई नहीं पूछता, कि "अब कैसा लग रहा है?" ५ इतने-इतने व्यापक तरीकों के बावजूद, जब मृत्यु के सौदागर नहीं कैद कर पाते देह, तब वे भरने लगते हैं पोटली में तरह-तरह के भ्रम। उनमें से — “ईश्वर की लीला” आज भी सबसे कारगर हथियार है। ६ ईश्वर, मृत्यु के ठीक बाद पहला झूठ है जो बोला नहीं गया, बस चुप्पियों में लपेटकर परोसा गया। ७ और अब जब मैं सब कुछ जान चुका हूँ, कह चुका हूँ तो सुनो मनुष्यों, सुनो गिद्धों — मेरे मरने के तुरंत बाद नोच खाना हर उस बेनाम फफूंदी को जो किसी ईश्वर की कृपा बताकर उग रही हो मेरे देह पर, मेरे विचार पर और मेरी कविताओं पर। @कुनु
मुड़ कर जब भी मैनें तुम्हें देखा तो देख नहीं पाया तुम्हारी चंचलता तुम्हारे होंठ तुम्हारे बाल तुम्हारी सुंदरता मैनें देखा तो केवल तुम्हारा जुनून तुम्हारे घाव तुम्हारी उड़ान शायद इसलिए मुझ तक पहुँच हि नहीं पाया आकर्षण और चुपके से प्रेम कर गया आलिंगन ताकि ' मैं ' कह सकूँ ग़ज़ल नग्में तुम्हारे संघर्ष पे ।
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