खाली पेट
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एकाकी, खाली पेट,
निर्वात की तरह,
निचोड़ लेता है
समस्त पीड़ा का सार।
वहाँ कोई क्रांति नहीं होती,
न कोई युद्ध लड़ा जाता है,
न कलम चलती है पन्नों पर,
न प्रार्थनाओं के लिए
हाथ उठते हैं।
उस पल,
करने को, होने को
सभी क्रियाएँ नील बट्टा सन्नाटा,
सिर्फ़ एक निर्वाक
कक्ष को छोड़,
जहाँ विचारों की गति
दो कौर अन्न के इर्द-गिर्द
गोल-गोल घूमती है।
आश्चर्य देखो—
अनंत आकाश के नीचे,
समस्त सभ्यता का गणित
आख़िरकार
एक रोटी के समीकरण पर आकर रुक जाता है।
@कुनु