खोज
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तुम्हें याद करने का
कोई तयशुदा दिन नहीं होता
पर आज,
सुबह की रसोई में
तेल की पहली छनक के साथ ही
तुम थी।
कपड़े इस्त्री करते हुए
भाप की हर हल्की ख़ुशबू में
तुम थी।
कॉलेज की भीड़ में
पीठ पर गिरती धूप के
छोटे-छोटे पंखों में
तुम ही थी।
और फिर
जब सूरज डूबने लगा,
ठीक उसी क्षण
तुम अचानक
कहीं भीतर की किसी खोह में
ओझल हो गई।
मैंने खोजा—
कंधे पर रखे बैग में,
जेब के पुराने टिकटों में,
भीड़ की बेमतलब आवाज़ों में,
पर तुम नहीं मिली।
हाँ,
आँसू मिले।
बहुत तेज़ , बहुत बेआवाज़।
तुम्हारी खोज का परिणाम
हमेशा मुझे
थोड़ा और बचा लेता है
उस खोखली यकीन से
जो कहता है—
"मैं मर चुका हूँ."
@कुनु