मौन व्रत एवं उपवास
उपवास एवं व्रत तो अनेक भावी माताऐं रखती है। उसमें एक व्रत और जोड़ लें। संभव हो तो ९ माह तक सप्ताह में एक दिन मौन व्रत रखें। सप्ताह में १ दिन न कर सको तो माह में एक बार रखें। सुर्योदय से लेकर दुसरे दिन के सुर्योदय तक। इस व्रत की सुचना घर में सभी सदस्यों को दे दें। दूसरे दिन लगने वाली चीजे यथा संभव तैयार रखें। हमारा मौन दो तरह का हो सकता है। एक केवल मुँह बंद रखना। कुछ कहना हो तो इशारे करना या लिखकर दिखाना। पर यह मौन पुरी तरह से मौन नही कहला सकता। दुसरा मौन है पुर्णतः मौन। आज किसी भी प्रकार का शब्द नही, इशारा नही, लिखावट नही। संभवतः एकांत में ही रहने की कोशिश करें। अधिक से अधिक आध्यात्मिक भजन सूनें। आध्यात्मिक या उच्च कोटि की साहित्यिक किताब पढें । पुजा पाठ करें। मुस्कुराते रहें। आँसु बहे तो बहने दें। स्वयं को भीतर से देखते रहें। आज रोज की तुलना में ज्यादा ध्यान लगायें। प्राणायाम रोज की तरह करे। आज अखबार न पढे या टी. वी. भी ना देखे। आज अपना मोबाईल भी बंद रख दे। यह मौन व्रत बहुत आसान है पर पहली बार तो थोडा मुश्किल लग सकता है, लेकिन एक बार विजय पा ली तो बाद में कभी मुश्किल नही आयेगी।
घर में सभी को इस किताब का यह पन्ना पढवा दें। ताकि वह सभी इस प्रक्रिया में आपको सहयोग दें। जिस भावी माता को बहुत ज्यादा बोलने की आदत है वह तो इसे अत्यावश्यक मान कर करें।
इसी मौन व्रत के साथ दुसरी प्रक्रिया जोड़े, यौगिक उपवास। यह उपवास आप किसी देवी देवता के नाम पर भी रख सकती हैं। आज आपको रोज की तरह ही खाना है, परंतु आज कोई पकाई हुई, उबाली हुई, या तली हुई, साबुदाना, या किसी तरह के प्रोसेस की हुई चीजों को वर्जित करना है, अर्थात केवल प्राकृतिक व कच्चा खाना है। फल, अंकुरित अनाज, कच्ची सब्जियाँ, ड्राय फ्रुटस्, दुध, फलों का रस (ज्युस) आदि। दवाई लेना आवश्यक हो तो उसे मात्र टालें नही। प्याज, लहसुन, चाय, कॉफी आपने छोड रखी है या लेते ही न हो तो अति उत्तम है। लेकिन लेते हो तो आज ना लें। चाय कॉफी के बगैर सरदर्द देना यह हमारी शारीरिक क्रिया कम मानसिक ज्यादा है। यह भ्रम मन से निकाल दें।
इस तरह आप मन से व शरीर से शुध्द हो जायेंगे। दुसरे दिन मौन व्रत भगवान का नाम लेकर या स्तोत्र पढकर छोड़ें। उपरांत अपने शिशु के लिए आशिर्वचन बोलें, आशिर्वाद दें। उपवास भी कोई हलकी फुलकी चीज खाकर छोड़ें। रोज के जितना ही खायें। यह नही कि दुसरे दिन खाने पर टूट पड़ें और पहले दिन की कसर निकाल दें।
यह मौन व्रत एवं उपवास आपके लिए एवं आपके शिशु के लिए अति उत्तम प्रक्रिया है। इससे आपका शिशु जगत में मन से सात्विक व तन से शुध्द स्वास्थ्य लेकर जीयेगा। सदैव उस पर ईश्वरीय कृपा बनी रहेगी। वह सभी सांसारिक सुख संपन्नता से भरपुर जीवन जीयेगा । उसमें अद्भुत सहनशीलता व संयमशीलता आपको दिखाई पडेगी। वह स्वभाव से शांतचित्त का, संयमी व बुद्धिमान होगा ।
नौ माह तक आपके किये हुये प्राणायाम, ध्यान, मंगल कामना का संकल्प, मौन व्रत एवं उपवास आपको एक अद्भुत शिशु का उपहार देगा, जो स्वयं का आपका, आपके परिवार का, समाज का, राष्ट्र का, समस्त विश्व के कल्याण का भागी बनेगा।
व्रत उपवास के दुसरे दिन सात्विक रहकर आप स्वयं का भीतर से अवलोकन करें तो इस बात का आंशिक अनुभव आपको अपने भीतर ही दिखाई देगा। आपके गर्भस्थ शिशु की तरफ से भी तुरंत प्रतिक्रिया भी आपको मिलती नजर आयेगी।
मौनव्रत एवं उपवास दोनो समझाये गये हैं। मौनव्रत किसी कारण ना हो तो उपवास अवश्य करें।
ऊपरी मौनव्रत के अलावा मौनव्रत के लिए निद्रा का समय छोड़ कर रोजाना १.२५ घंटा या ३ घंटो के मौनव्रत को भी चुन सकते हो। इस समय में विचारों को भी विराम देने की कोशिश करें, या किसी नामजप में लीन हो जायें। शिशु का भी ध्यान किया जा सकता है। क्रोधित स्वभाव, चिडचिडा स्वभाव, ज्यादा बोलने की आदत वाली माताओं के लिए यह उत्तम प्रक्रिया है। इससे उनके स्वभाव दोषों से शिशु को मुक्त रखने में मदद मिलती है।
ओंकार ध्यान
ओंकार ध्यान का प्रारंभ हम भ्रमर प्राणायाम व्दारा करते है। भ्रमर प्राणायाम को हम प्राणायामों का राजा भी कह सकते है। यह प्राणायाम संपुर्णतः ओंकार पर ही निर्भर है। ओंकार सर्व सामान्य विधी है, एक गर्भस्थ माँ एवं शिशू के बीच भावना एवं संवेदन के आदान प्रदान की।
ध्यान युक्त भ्रामरी प्रणव प्राणायाम
आसन पर बैठ जायें। आसन विद्युत कुचालक हो। साधना के समय आपके शरीर का कोई अंग आसन के बाहर जमीन से सीधा संपर्क में ना आये, इस बात का ध्यान रखें। सबसे उपयुक्त समय ब्रम्हकाल का है। उपरांत प्रातः समय कभी भी कर सकते है। संध्या समय भी यह प्राणायाम कर सकते है। शुध्द वातावरण में करें, चाहे वह कमरा हो या घर का बाग हो या छत हो। वातावरण को अधिक प्रफुल्लित बनाने के लिए सुगंधित अगरबत्ती लगा सकते है। घी का दिया भी जला सकते हैं पर यह आप से थोडा दुर रहे। सुगंधित पुष्प पास में रख सकते है।
सुखासन या वज्रासन में बैठें। हाथ के अंगूठों व्दारा दोनो कानों को बंद कर लें। अंगुठे के बाद की अनामिका अंगुली माथे पर ले जाये, बची तीन अँगुलिया आँखो पर हलके से रख दें, दबाये नही। अब गहरा पुरक (सांस भरना) करें। रेचक (सांस छोड़ना) के रूप में दीर्घ भ्रमर (भँवरा) की तरह गुँजन करें। (गुँजन गले से घर्षणयुक्त मधुर आवाज की तरह हो। मुँह या नाक से आवाज न करें।) गुँजन में ओम की गुनगुनाहट रहे। इस तरह पाँच गुँजन करने के उपरांत अपने हाथ ध्यान-ज्ञान मुद्रा में ले आयें। पुरक का क्रम जारी रखें एवंम् अब गुंजन की जगह ओंकार का उच्चारण करते जायें। पाँच भ्रमर गुंजन के जवाब में नौ ओंकार करें। नौ ओंकार होने के उपरांत अपना ध्यान भीतर ही रखें। ओंकार की अंतर्ध्वनी सुनते रहें। दृष्टा बनकर दीर्घ व सुक्ष्म गति से श्वास को सहजता से लेते व छोड़ते रहें। श्वासों की गति इतनी सुक्ष्म रहनी चाहिये कि श्वासों की ध्वनी की अनुभूती न हो। जितना समय आपने उपरोक्त क्रिया की, उतना या अपनी इच्छानुरूप अधिक समय आप ध्यान कर सकते है। ओंकार के अजपे जप में एवंम् सांसो पर ही अपनी चेतना रखने से अन्य विचार या भावों से सहज दुर रहा जा सकता है। जिससे आप अद्भुत शांति का अनुभव करेंगे। अन्य विषयों से दूर ओंकार यही एक विषय रह जाने से ओंकार कल्प ध्यान सहज घट जाता है। ध्यान समापन के बाद पुन: एक ओंकार का उच्चारण करे। हाथों का घर्षण करें, चेहरे पर अच्छे से घुमा लें, भुमि की तरफ देखते हुए अपनी आँखे खोलें। आँखे खोल मन ही मन परमात्मा को पाये हुये शांति व प्रेम के लिए धन्यवाद दें। उपरांत अपने मन की बात परमात्मा से या जगन्माता से एक मित्र की तरह मन ही मन कर सकते है।
अधिक ध्यान के लिए ९ भ्रमर गुँजन, १५ ओंकार या १५ भ्रमर गुँजन, २१ ओंकार कर सकते हैं। उपरांत ध्यान का समय पहले की तरह ही रहेगा। आधा समय बैठ कर, आधा समय लेटकर भी ध्यान कर सकते हैं। उठते समय करवट पर लेट कर उठें। ध्यान से बाहर निकलना उपरोक्त क्रिया के समान ही रहेगा।
प्राणायाम का लाभ: भ्रामरी प्राणायाम नाद के प्रति सजगता में वृद्धि करता है। ध्यान के लिए सहज स्थिती निर्माण करता है। यह मानसिक तनाव, क्रोध, चिन्ता आदि दूर करता है। यह अभ्यास उच्च रक्तचाप में भी लाभकारी है।
ओंकार की मुल क्रिया का ध्यान एवं सामान्य अनुभव
ओंकार की क्रिया में 'अ' के उच्चारण के समय मणिपुर चक्र में, 'उ' से अनाहत चक्र में, 'म्' से आज्ञा चक्र में सहज प्रतिक्रिया मिलती है। 'अ उ म्' का संयुक्त उच्चारण ही 'ओम्' होता है। इसकी संयुक्त प्रतिक्रिया में मणिपुर से एक लहर सी उठती है, अनाहत विशुध्दि चक्र से गुजरते हुए आज्ञा चक्र पर समाप्त होती है। हर ओंकार के समय इसी प्रतिक्रिया का पुनः पुनः अनुभव होगा। मणिपुर के अग्नि तत्व से ऊर्जा उर्ध्वगामी होकर अनाहत के वायु तत्व के सहारे आकाश तत्व में अर्थात आज्ञा चक्र में पहुंचकर वहाँ प्रकाश बिंदु या ज्योति का निर्माण करती है।
जब हम केवल इसी प्रक्रिया में अपनी चेतना को लगा दें तो ध्यान अपने आप घटने लगेगा। जब उच्चारण रुक जाये तो भी यह प्रक्रिया जारी रहती है, क्योंकि आपके सुप्त भावों को ओंकार की गति मिल चुकी होती है। इस प्रक्रिया को भीतर देखते रहें। ओंकार की अंतर्ध्वनी सुक्ष्म रुप से सुनने का प्रयत्न करें। आज्ञा चक्र पर अपनी चेतना को बढाते चले जायें। वहाँ कोई प्रकाश बिंदु या ज्योति उपलब्ध होती है। उसके प्रकाश को देखने का प्रयास रखें।
एक सितारा या जुगनू जैसा प्रकाश, फिर वही प्रकाश बिंदु ज्योति के रूप में, फिर वही ज्योति भव्य सुनहरे प्रकाश के रूप में इस तरह ओंकार का साक्षात्कार हो सकता है। यह साक्षात्कार आज्ञा चक्र के पास अनिवार्य उपलब्ध होता है, परंतु वहाँ ध्यान का प्रयत्न करने से साक्षात्कार में सहजता बनती है।
ओंकार के 'अ' कार से मणिपुर चक्र का लाल रंग, 'उ' कार से अनाहत चक्र का फीका हरा रंग, 'म' कार से आज्ञा चक्र का नीला रंग या इन रंगो की संमिश्र प्रतिक्रिया भी प्रारंभिक साक्षात्कार में अनाहत या आज्ञा के स्थान पर आपको दिखाई दे सकती है। रंग प्रकाश की प्रारंभिक अवस्था हो सकते है। इन तीनो चक्र के तत्व अग्नि (प्रकाश, धधकती अग्नि, ज्योत, अनगिनत ज्योतियाँ, इ.) वायु (शीतल पवन का झोंका, आँधी तुफान किसी भी रूप में) या आकाश (चाँद, तारे, नीला या गर्द आकाश, ब्रम्हांड का दृश्य आदि) की प्रतिक्रिया भी ध्यान में दिखाई दे सकती है। यह प्रतिक्रियाएँ आज्ञा चक्र के स्थान पर या अनाहत चक्र के स्थान पर होने की अधिकतम् संभावनायें होती है।
ओंकार साधना में चक्रों से संबंधित देवता, तत्व, ईश्वरी स्वरुप आदि मन मस्तिष्क के सुप्त भावों में इन स्वरुपों से संबंधित कोई पारमात्मिक छवि के दर्शन भी साक्षात्कार में हो सकते है। हिंदु धर्म के अलावा अन्य किसी भी संप्रदायों में आस्था रखने वाले साधकगण उनके धर्म में या संप्रदाय से संमधित परमात्मा का स्वरुप अनुभव उनको भी इस ओम साधना में हो सकता है।
यह अनुभव प्रथम बार में ही आना आवश्यक नही है। किसी प्रकार की पूर्व भ्रांति न रखते हुये साधना करते रहें। प्रयासों से कुछ सुक्ष्म, आंशिक साक्षात्कार आना प्रारंभ हो जाते है।
जब गर्भवती यह प्राणायाम करती है। तो उसका मुख्य उद्देश्य होता है उसका शिशु। अतः गर्भवती को शिशु संबंधित सुंदर अनुभव आ सकते है। शिशु का मुस्कुराना, स्पर्श, कोमल ध्वनी, उसकी कोई हरकत या अन्य।
संपुर्ण साक्षात्कार का वर्णन या व्याख्या शब्दों में नही बाँधा जा सकता। उपरोक्त सामान्य अनुभव है। आने वाले अनुभव केवल आप ही के लिए है। उस पारमात्मिक ऊर्जा या अनुभवों को स्वयं के लिए गुप्त रखना ही उचित होता है।
ओंकार सृष्टि की सृजनात्मक ध्वनी है। जब कुछ न था तो केवल एक सत्य ओंकार था। इसी व्दारा प्रकाश एवं प्रकृति की उत्पत्ति हुई। इस शब्द का कोई अर्थ भी नही, यह अर्थातीत है, सो इसका हर धर्म में उपयोग किया जा सकता है और किया भी जाना चाहिये।
ओंकार से सहज ध्यान लगता है
निरंतर प्रयास से इसमें सफल होना अनिवार्य है, पर संयम रखना होगा। ध्यान पुर्णरुप से ना भी लगे तो भ्रमर गुँजन व ओंकार के समय ध्यान घट ही जाता है। इस साधना के मानसिक लाभ के अलावा शारीरिक लाभ भी प्राप्त होते है। ध्यान के लिए आप ओंकार चैनटिंग की ऑडिओ रेकॉर्डिंग भी सुन सकते है। शिविर में हम इसका उपयोग करते है। ऐसे अनेक अॅल्बम् आपको बाजार में मिल जायेंगे। हमारी भी ऑडिओ सी.डी. उपलब्ध है। ध्यान के समय कोई शांत संगीत का सहारा भी ले सकते है।
मात्रा : अ ऊ म्
गुण : रज तमस् सत्त्व,
जगत् : स्थूल सूक्ष्म कारण
सृष्टि : उत्पत्ति स्थिति प्रलय
ईश्वर : ब्रह्मा विष्णू महेश
शक्ति : सरस्वती लक्ष्मी पार्वती
जो प्रणव मंत्र उच्चारण किया जाता है, वह त्र्यक्षरमय है, दो मात्रा अ, एक मात्रा उ और आधी मात्रा म्, कुल अ ऊ म् से ओंकार रूपी प्रणव होता है। जिसके तीनों अक्षरों में त्रिगुणमयी प्रकृति क्रमशः अपने तीनों गुणों रज, तमस्, और सत्त्व, अथवा तीनों जगत् स्थूल, सूक्ष्म और कारण सहित, अथवा सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की अपेक्षा से ब्रह्मा, विष्णु और महेश
रूप से विद्यमान हैं। उन्ही के साथ उनकी शक्तियाँ जुडी हुई है। प्रणव ही पुर्ण परमात्मा रूप है।
वैज्ञानिक दृष्टि से प्रणव का स्वरूप यह है कि जहाँ कोई कार्य है, वहाँ अवश्य कम्पन होगा, वहाँ अवश्य कोई शब्द होगा। सृष्टि के आदिकारणरूप कार्य की ध्वनि ही ओंकार है। प्रणव-ध्वनि ही ओंकार है।
ओंकार ध्यान की गर्भवती के लिए उपयुक्तता
अभिमन्यु ने जैसे चक्रव्युह का ज्ञान गर्भ में ही पा लिया था, वैसे ओंकार ध्यान का अभ्यास शिशु गर्भ में ही पा लेगा। मन में यह भाव रखें कि आपके भ्रमर गुंजन व ओंकार के उच्चारण के सुक्ष्म कंपन का पुर्ण लाभ गर्भस्थ शिशु के पास पहुंच रहा है। भुमि की तरफ देखते हुए अपनी आँखे खोलने के बजाय गर्भ के पास देखते हुए अपनी आँखे खोलें। उपरांत अपने नित्य पुजा-पाठ, जपादि कर सकते है। इस साधना से शिशु शांत प्रवृत्ती पाता है। जिसका लाभ उसे आजीवन प्राप्त होता रहेगा। वह बुध्दीमान व एकाग्र चित्त होगा। वह जन्मोपरांत आम शिशु से जल्द बोलने में सक्षम रहने के साथ ही परमात्मा की विशेष अनुकंपा के साथ अपनी वाणी में भी ओजस्विता पायेगा। यही साधना शिशु को समझ आते ही वह करने लगेगा तो सहजता से इस साधना के लाभ पाने लगेगा। इस साधना से शिशु अनुवांशिक रोगों से भी सुरक्षित रहेगा या रोगों पर सहजता से काबू पाने योग्य होगा। पुर्वजन्म के अकर्मों से छुटकारा पाने के लिए यह साधना शिशु के लिए सहायक होगी।
नौ माह का समय ऐसे भी बिताना ही है, फिर क्यों न इसी समय से कुछ समय टी.वी. सीरियल्स या गपशप में ना लगाते हुए ध्यान साधना में लगायें। जिससे आप अपने होने वाले पुत्र या पुत्री को जन्म भर की अच्छी सौगात इन नौ माह में दे दें।
आने वाले समय में न जाने कितने बाहरी गलत संस्कार आपके न चाहते हुए भी बढती उम्र के साथ आपके शिशु के सम्मुख आयेंगे। अतः नौ माह अच्छे संस्कारो की नींव गर्भ में ही स्थापित हो जाये तो शिशु यथा समय स्वयं ही आने वाले गलत संस्कारों को स्वीकार नही करेगा। माता पिता को गौरव प्राप्त करके देने वाला शिशु पाने के लिए जरुरत है, केवल नौ माह तक अधिक से अधिक सात्विक समय निकालने की एवं साधना करने की ।