[ ध्यान ]
कल्पना में है सत्य का सामर्थ्य
कल्पना केवल कल्पना नही हो सकती। कल्पना में वास्तविकता व संभावना छुपी हुई होती है। कल्पना भी प्रार्थना की तरह संभाव्य शक्ति है, कल्पना शक्तिशाली है। कल्पना के सामर्थ्य से अस्तित्व को नष्ट भी कर सकते हैं एवं निर्माण भी किया जा सकता है। हम जो भी कार्य करते हैं, वह कल्पना से निर्मित हो रहा है। कल्पना एक ऊर्जा है जिससे हमारा मन भी चलता है, जिसका शरीर भी अनुकरण करता है। धारणा में हम जो गहराई में उतरते हैं, वही वास्तविकता बन जाती है।
कई बार केवल कल्पना मात्र से अनेक रोग व्याधियाँ जन्म ले सकती है। किसी व्याधी की कल्पना से हम ग्रस्त हो जायें तो वह व्याधी हमें घेर लेती है। रोग-व्याधी हो जाने पर वह नही है, ऐसी सशक्त कल्पना करने से वह ठीक हो जाती है। अगर गर्भवती बार बार सिजरीन का डर मन में लाती है तो सिजर होने की संभावना वह स्वयं निर्माण कर लेती है। इसके विपरीत कल्पना सामान्य प्रसुती की संभावना बलिष्ट करती है। ऐसे ही केवल सशक्त सकारात्मक कल्पनाओं से गर्भवती वैसे ही कल्पित शिशु को प्राप्त कर लेती है।
तिब्बत में होने वाली उष्म योग नामक विधी को हमने सुना था। सर्द रात, बर्फ की वर्षा, तापमान शुन्य से भी कम, तिब्बती लामा खुले आकाश के नीचे निर्वस्त्र होकर खड़ा रहता है। आपको खडा किया जाय तो आप ठिठुरने लगोगे । यहाँ लामा इस विधी का अभ्यास कर रहा है। वह केवल कल्पना कर रहा है कि “उसका शरीर एक ज्वलंत अग्नि है। गर्मी से उसका पसीना निकल रहा है” और सही में पसीना निकलने लगता है। उसका शरीर वास्तव में गरम हो गया है। लेकिन यह वास्तविकता केवल कल्पना से निर्माण की गई है।
एक बार आप अपनी कल्पना में लयबध्द हो जाओ। कल्पना को सशक्त हो जाने दो, शरीर भी कल्पना के साथ सक्रिय हो जाता है। हमारा मन मस्तिष्क भी शरीर का साथ देने लगता है। ऐसे ही ध्यान में, संस्कारो में, स्वास्थ्य में, प्रत्येक प्रकार की मानसिकता में सशक्त सकारात्मक कल्पना अद्भुत परिणाम देने में सक्षम होती है।
कल्पना यह विचारों में से जन्म लेती है। किया गया विचार या बोला हुआ शब्द कभी भी व्यर्थ नही जाता, फिर सकारात्मक हो या नकारात्मक, और वह विचार हमारे जीवन में प्रत्यक्ष में आ ही जाता है। बाह्यमन से उत्पन्न विचार जिसमें हमारा विश्वास या मन का गहरापन अधिक हो वह अंतर्मन में पहुंच जाते है, एवं अंतर्मन में पहुंचे विचारों में सत्य व वास्तविकता की संभावना 100% रहती है।
कल्पना केवल स्वसूचन रह सकती है या उसे चल चित्र के स्वरुप में हम देख सकते है। भविष्य में हमें जो चाहिए, वह प्रसंग के रुप में वर्तमान में बंद आँखो से कल्पना में देख लें तो वह प्रसंग ब्रम्हांड में स्थापित हो जाता है एवं वही प्रसंग भविष्य में प्रत्यक्ष रुप में अवतरीत हो जाते है। अर्थात ऐसा तभी हो सकता है, जब वह आपके अंतर्मन में विश्वास स्वरुप में रहे। अविश्वास से भरे प्रसंग वास्तविकता में नही उतर पाते यहाँ संदर्भ चल रहे हैं, गर्भवती के लिए। गर्भवती यह जान ले कि उसकी हर सकारात्मक कल्पना सकारात्मकता निर्माण कर रही है। हर नकारात्मक कल्पना नकारात्मक परिणाम देने में सक्षम है। एक गर्भवती की सकारात्मकता केवल उसके शरीर एवं मानसिकता पर परिणाम नही करती बल्कि उसका शिशु उससे भी अधिक संवेदनशील है, वह सब ग्रहण कर रहा है। वह मौन है, लेकिन नौ महीने की प्रत्येक कल्पना, प्रत्येक विचार, प्रत्येक कृत्य, आपके व्दारा उत्पन्न प्रेम, दया, करुणा, ईर्ष्या, व्देष, शत्रुत्व... सब कुछ वह अपने जीवन में दोहराने वाला है। जाने अनजाने में, या जानकर सब कुछ आप ही निर्मित कर रही हैं। अधिकतम माता ही शिशु पर परिणामकारक होती है। साथ में पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों की भुमिका भी कुछ हद तक कारगर साबित होती है पर माता की सशक्त सकारात्मक कल्पना शक्ति, संयमशक्ति, एवं संस्कारी भावनाऐं शिशु को हर तरह से सुरक्षित व सुसंस्कारित रखने में सक्षम है।
ध्यान
ध्यान प्रत्येक व्यक्ति को जन्मतः प्राप्त एक ऊर्जा है। ध्यान एक संपूर्ण विश्राम की स्थिती है, जिसमें हमारा शरीर व मन शांत व निर्विकार हो जाता है, आत्मा शुद्ध चैतन्यमय हो जाती है। ध्यान कोई गंभीरता नही है, उदासीनता नही है, मुश्किल या असंभव प्राप्ति भी नही है। ध्यान केवल साधु, सन्यासी या देवी देवताओं से संबंधित प्रक्रिया नही है। ध्यान सहज अवस्था है, जो प्रत्येक सामान्य व्यक्ति को उपलब्ध हो जाती है।
ध्यान एक खेल है, उत्साह है, मस्ती है, उत्सव है, यह एक आनंदपूर्ण क्रिया है, आवश्यकता है तो केवल धैर्य रखने की। ध्यान में परिणाम खोजने की आवश्यकता नही, वह प्रत्येक व्यक्ति में निहित है, सहजता से उपलब्ध है। केवल ध्यान करना है, जो चल रहा है, उसमें कोई हस्तक्षेप न करते हुए, देखते रहना है, अनिर्णय का भाव रख साक्षी बनना है, जो हो रहा है, वह हो जाने दो.. बस् ।
ध्यान करते समय सुखपूर्वक रहना आवश्यक है। शरीर को भुलना अर्थात आराम की स्थिती, शरीर का बार-बार या बीच में स्मरण होने का अर्थ है, आप , कष्ट में हो। ध्यान के लिए ऐसे आसन में बैठो जो सुखकारक हो। ध्यान के आनंद हेतु शरीर की सुविधा आवश्यक है। सीधा बैठ कर जितना समय सुखकारक रह सको, उतने समय सीधा बैठ कर ध्यान करें। बाकी शुरू में हम कहाँ बैठे हैं, कैसे बैठे हैं? यह उतना महत्वपूर्ण नही है। ध्यान की जगह हमारे लिए प्रसन्नमय हो, शुरू में इतना जरुर ध्यान रखें। इस संदर्भ में प्राणायाम के प्रकार में स्थिती, काल, भावना की प्राणायाम के लिए जो सूचनाऐं दी है, उन्ही को ध्यान के लिए भी आप निर्धारित कर सकते हो ।
ध्यान के लिए संभव हो तो एक ही स्थान व आसन को उपयोग में लें.. इससे भी अधिक संभव हो तो उस जगह पर साधना के अतिरिक्त अन्य कोई भी कार्य ना हो। ऐसा करने से उस जगह का पावित्र्य बढ़ता रहता है व उत्तरोत्तर आपकी साधना अधिक फलित होने लगती है। ऐसी जगह पर केवल बैठने से भी शांति मिल जाती है। स्थान अप्रदुषित प्रकृति के जितने करीब हो, उतना अच्छा है।
ध्यान के समय जिसमें आप का मन उलझ सकता है, जैसे मोबाईल फोन, जुते, पर्स बेल्ट आदि सब चीजों का त्याग कर दें। खुद को सहज बनाकर ध्यान करें।
प्रत्येक प्राणायाम के साथ अंत में ध्यान किया जा सकता है। प्राणायाम के समय पुरा ध्यान सांसो की तरफ रहता है। प्राणायाम में रुक जाने पर उन्ही सांसो का अवलोकन करते रहें। बंद आँखो से ही नासिकाग्र पर मानसिक दृष्टि लगायें । आज्ञा चक्र या अनाहत चक्र पर ध्यान दे सकते हैं। हर तरह के ध्यान में या तो विचार शुन्य होना होता है, या प्रारंभ में विषय पर ध्यान लगा सकते है। विषय के संग भी शुन्यता का प्रयत्न करना होता है। विषय सांसे, कोई चक्र, कोई प्रकाश बिंदु, परमात्मा की कोई छवि हो सकती है, परंतु उस विषय को लेकर कोई अन्य विचार या उद्विग्न भावना मन से दूर रखें।
प्रारंभ में मंद संगीत या आध्यात्मिक भजन के संग भी मन को एकाग्र कर ध्यान में प्रविष्ट हो सकते हैं। ध्यान का अर्थ है, अपनी आत्मा के संग एकरुप होना। निर्मल आनंद का अनुभव लेना। जो अत्यंत सहज है, पर मन की चंचलता, उद्विग्नता के कारण दुर्लभ लगता है। साधारण संकल्प व दृढ इच्छा से आप इस आनंदपुर्ण आत्मानुभव को आसानी से पा सकते हैं। योग शिविर या किसी आध्यात्मिक शिविर से इसकी शुरुआत सहजता से आप कर सकते है। ध्यान की अनेक विधियाँ है । विस्तृत रुप से इस पर ग्रंथ भी लिखे जा सकते है एवं लिखे भी गये है। इसके परमानंद के अनुभव की व्याख्या शब्दों में नही समा सकती।
ध्यान के लिए भ्रामरी प्रणव प्राणायाम का सहारा लेकर ओंकार ध्यान में प्रविष्ट हो जायें। यहाँ से आपके लिए ध्यान सुगम हो जायेगा।
नये साधक ब्रम्हकाल–प्रातःकाल, या संध्या समय में ध्यान लगायें। रात 11 बजे से सुबह 3 बजे तक ध्यान के लिए समय विशेष उपयुक्त नही है। भोजन के उपरांत 45 मिनट तक ध्यान में ना बैठें। गर्भवती सुखासन, या वज्रासन में बैठे। जो नीचे बैठ नही सकते, वे कुर्सी पर बैठकर भी ध्यान लगा सकते हैं। ध्यान लगाने से अनेक मानसिक, शारीरिक एवं आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होते है।
गर्भवती सुखासन, वज्रासन या किसी अन्य आरामदायक स्थिती में बैठ कर ध्यान में प्रविष्ठ हो सकती है। दीवार का सहारा लेकर या कुर्सी पर बैठकर, या लेट कर भी ध्यान लगाया जा सकता है। ध्यान से अनेक मानसिक, शारीरिक व आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होते है। शिशु शांत एवं संयमशील हो जाता है। उसी तरह एकाग्रता, स्मरणशक्ति व बुध्दीमत्ता का विकास अद्भुत हो जाता है। ध्यान का प्रशिक्षण व दिव्य अनुभव शिशु को गर्भ में प्राप्त हो जाता है।
पुस्तक ध्यान : आध्यात्मिक, धार्मिक कथा, उच्च दर्जे के उपन्यास, काव्य, संत साहित्य या मन को प्रसन्न करने वाले सकारात्मक विषय की पुस्तकें लें, शांत जगह आरामदायक स्थिती में बैठ कर तन्मय होकर पुस्तक पढ़ें।
ओंकार ध्यान : भ्रामरी प्रणव प्राणायाम का सहारा लेकर ओंकार ध्यान में प्रविष्ट हो जायें। यह ध्यान आसान व लाभप्रद है। ओंकार स्वयं में ध्यान का एक दिव्य स्वरुप है। ओंकार ध्यान पर आगे स्वतंत्र प्रकरण दिया गया है।
कला ध्यान : मेहंदी लगाना, रंगोली निकालना, चित्रकला, संगीत का रीयाज करना, गीत गाना गुनगुनाना, हस्तकला आदि कलात्मक कार्य करने से गर्भस्थ शिशु पर कलात्मकता, सृजनात्मकता, कल्पनाशीलता, बुध्दीमत्ता, एकाग्रता का दृढ संस्कार हो जाता है, क्योंकि कला आदि साकार होते समय माँ का मन पूर्णरूप से उसी में ध्यानस्थ होता है। शिशु भी माँ का अनुकरण करता है एवं कलाध्यान में मग्न हो जाता है।