पति का कर्तव्य
गर्भिणी वांच्छितं द्रवं तस्यै दद्याद्यथेचितम्।
सूते चिरायुषं पुत्रं अन्यथा दोषमर्हति।।
“गर्भिणी की इच्छा जिस जिस वस्तु पर जाएगी वह हर वस्तु "योग्य हो तो" पती उसे अवश्य लाकर दे जिससे वह उत्तम व चिरायु शिशु को जन्म देगी। पर गर्भवती की ईच्छा पुरी ना की जाये तो वह दुःखी, असहज व उदास होगी जिस कारण गर्भ भी सदोश उत्पन्न होगा!” इसलिए "सदा कार्येप्रियं स्त्रियः।" गर्भिणी जिस कारण प्रसन्न रहेगी, ऐसा ही उत्तम बर्ताव उसके साथ घर में सभी छोटे बड़े लोग रखें, ऐसी शास्त्राज्ञा बताई गई है।
गर्भवती की इच्छा को संस्कृत में "दौर्हृद" कहा गया है। दौर्हृदिनी का अर्थ दो हृदय, अर्थात् एक गर्भ का हृदय व दुसरा गर्भिणी का हृदय, गर्भ को शारीरिक रूप से हृदय की प्राप्ति चौथे माह में होती है और तब से गर्भवती की अधिक इच्छाए प्रगट होती है। गर्भ अपनी इच्छाएँ हमेशा माता की इच्छाओं द्वारा प्रकट करता है व माता के भोजन व्दारा सारभूत भोजन ग्रहण करता है। माता की आँखो से देखता है व माँ के कानों से सुनता है। सारांश, गर्भावस्था में गर्भ व दोनो एकरूप होते है।
“उत्ततोत्तम झांकियाँ देखने की, उत्तमोत्तम वस्त्रालंकार धारण करने की, सात्त्विक अन्न ग्रहण करने की, देवदर्शन व राजदर्शन लेने की इच्छा जिस गर्भवती को होती है उसे महाभाग्यशाली व ऐश्वर्यवान् संतान प्राप्त होती है।” माँ की सदिच्छाए ही गर्भ को सत्पुरुष-स्त्री व भाग्यवान् बनाती है और नकारात्मक इच्छाए गर्भ को बुरा, दुराचारी बनाती है। जान बुझ कर अधिक सदिच्छाओं का अभ्यास करना चाहीए। पति भी इसमें यथासंभव अपना सक्रिय सहभाग दे। पति भी गर्भकाल में सात्विक व सदाचारी जीवन जीये। कारण है कि गर्भ माँ के व्दारा उसे नित्य देखता व उसका चिंतन भी करते रहता है।
स्त्री भी ऐसी बुरी ईच्छाओं का खुद ही पूर्ण त्याग करें। जिससे जन्मतः मनोनिग्रही श्रेष्ठ कन्या-पुत्र उत्पन्न होगी! पती व अन्य रिश्तेदार भी गर्भवती के नकारात्मक इच्छाओं का त्याग करने के लिए, बडे प्रेम से व युक्तिप्रयुक्ति से उपदेश दे। गर्भवती को डराने धमकाने से वह कभी भी मानेगी ही नही। परंतु गर्भवती पर क्रोध करने से गर्भ को नुकसान ही होगा इसका ध्यान रखें। स्वयं झुक कर गर्भवती से प्रेम से ही पेश आये। यही उत्तम पक्ष होगा। गर्भवती भी स्वयं की बुरी इच्छाओं का त्याग करें। विवेक से योग्य आहार-विहार द्वारा मनोनिग्रही, आज्ञाशील संतान की निश्चित प्राप्ति होगी।
मन में गलत नकारात्मक इच्छाए उत्पन्न होती हो तो गर्भवती स्वयं व्यर्थ में दुःखी व उदास ना हो। गलत व नकारात्मक ईच्छाऐं पेट साफ ना होने से, जठराग्नि बिगडने से ब्रह्मचर्य व यथोचित व्यायाम ना होने से, सात्विक भोजन सेवन न करने के कारण से भी होती है। ऐसे में गर्भवती के खानपान में योग्य बदलाव अवश्य करें। विशेषतः फल, ताजा सात्त्विक अन्न, स्वादिष्ट भोजन उसको प्रदान करे। गर्भवती ब्रह्मचर्य का उत्कृष्ट पालन करें। सुखकर हलका व्यायाम करें व पेट हमेशा साफ रहे ऐसी कोशिश करें। इससे अच्छी इच्छाए उत्पन्न होगी जिससे संतान भी उत्तम ही प्राप्त होगी।
ऐसे होते हैं संस्कार
बालक ध्रुव के भक्ति के संस्कार
कई युगों पहले महाराज स्वयम्भु मनु हुए थे। उन्हें उनकी पत्नी महारानी शतरूपा से दो पुत्र हुए प्रियव्रत तथा उत्तानपाद। महाराज उत्तानपाद की सुरुचि एवं सुनीति नामक दो पत्नियाँ थीं। उनमें से महारानी सुरुचि के पुत्र का नाम उत्तम एवं सुनीति के पुत्र का नाम ध्रुव था।
एक दिन राजा उत्तानपाद महारानी सुरुचि के पुत्र कुमार उत्तम को अपनी गोद में बिठाकर प्रेम प्रकट कर रहे थे, तभी कुमार ध्रुव ने भी अपने पिता से उनकी गोद में बैठने की इच्छा प्रकट की। इस पर महारानी सुरुचि ने ईर्ष्या पूर्वक ध्रुव को डाँटते हुए कहा– “तुम राजा उत्तानपाद के पुत्र होते हुए भी राजसिंहासन पर बैठने के अधिकारी नही हो, क्योंकि तुम मेरी कोख से उत्पन्न नहीं हुए हो। अतः यदि तुम्हें राज्य की इच्छा है तो तुम्हें भगवान् नारायण की उपासना करके उनसे प्राप्त वर के द्वारा मेरे गर्भ से जन्म लेना पड़ेगा।”
अपनी विमाता के दुर्वचनों को सुनकर कुमार ध्रुव रोते हुए अपनी माता के पास गये एवं उनसे लिपटकर उन्हें सारी बातें कह सुनायी। तब सुनीति ने कहा– “वत्स ! महारानी सुरुचि ने उचित ही कहा है कि यदि तुम राजसिंहासन पर बैठना चाहते हो तो द्वेषभावना का त्याग कर भगवान् नारायण की आराधना करो। बेटा! तुम्हारे पितामह एवं प्रपितामह ( महाराज मनु तथा श्रीब्रह्माजी ) ने भगवान नारायण की आराधना से ही श्रेष्ठ पद प्राप्त किया है। अतः तुम्हें भी उन्हीं श्रीहरि का आश्रय ग्रहण करना चाहिये। उन्हीं का आश्रय लेने से तुम्हारी सभी इच्छाएँ पूर्ण होंगी।” माता सुनीति के यथार्थ एवं हितकारी वचनों को सुनकर ध्रुवजी तपस्या हेतु नगर से बाहर निकल पड़े।
इधर देवर्षि नारदजी ध्रुव के पास जाकर उनकी परीक्षा लेने हेतु बोले– “वत्स! तुम्हारी उम्र अभी तपस्या करने लायक नहीं है। अतः वृद्ध होने पर परमार्थ की सिद्धि के लिये तप करना। मनुष्य को सुख दुःख जो भी प्राप्त हो, उसे विधाता का विधान समझकर उसी में संतुष्ट रहना चाहिये। ऐसा करने पर वह इस मोहग्रस्त संसार से सुखपूर्वक पार हो जाता है।” यह सुनकर ध्रुव बोले– “भगवन् ! आपने सुख दुःख से विचलित लोगों के लिये एक बहुत अच्छा उपाय कहा है, किंतु मैं क्षत्रिय हूँ। अतः किसी से कुछ माँगना मेरा स्वभाव नहीं है। मेरी विमाता ने मेरे हृदय को अपने कटु वचन से विदीर्ण कर दिया है। ब्रह्मन् ! अब मैं उस पद को पाना चाहता हूँ, जो त्रैलोक्य में सबसे श्रेष्ठ है।”
ऐसे विचार ज्ञात होने पर देवर्षि नारदजी ने प्रसन्न होकर उन्हें ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ यह द्वादशाक्षर-मन्त्र प्रदान किया। सदुपदेश पाकर ध्रुव ने परम पवित्र तपस्थली मधुवन में पहुँचकर यमुना में स्नान किया एवं एकाग्रचित हो श्रीमन्नारायण की उपासना प्रारम्भ की तथा कुछ ही मास में उन्हें प्रसन्न कर लिया। उसके फलरूप में उन्होंने छत्तीस हजार वर्षों तक धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करके सदेह ही भगवान् नारायण के परमधाम को प्राप्त कर लिया।
माता-पिता से केवल शरीर ही प्राप्त नही होता, मन भी प्राप्त होता है और संस्कार भी प्राप्त होते हैं। जैसा आचार-विचार, प्रवृत्ती अभ्यास आस्था तथा आदतें माता-पिता की होती हैं, प्रायः वैसा ही स्वभाव और आदतें संतान में भी देखी जाती हैं उसे 'आनुवंशिक - संस्कार' कहा जाता है। योद्धा का बेटा योद्धा हो सकता है, भजनानन्दी माँ-बाप के संस्कार उनकी संतान पर वैसे ही होते हैं। हिरण्यकशिपु-प्रह्लाद जैसे विपरीत उदाहरण भी देखे जाते हैं, परंतु प्रह्लाद को भक्ति के संस्कार माता कयाधू से और कयाधू को देवर्षि नारद से मिले। इस प्रकार संस्कारों का एक और महत्त्वपूर्ण स्त्रोत हमारे समक्ष माँ के रूप में स्पष्ट हो जाता है।
जब शिशु माँ के गर्भ में आता है, तभी से माँ अपने सत्संकल्पों से शिशु के संस्कारों की रचना करने लग जाती है।
मनोवैज्ञानिकों का सामाजिक समायोजन माँ के इस संकल्प के आगे कुछ बौना-सा प्रतीत होता है। इस कारण भी कि मनौवैज्ञानिक जीव का मौलिक स्वरूप उसकी प्रवृत्तियों में देखते है। प्रवृत्ती को प्राणी का मूलरूप बतलाते हैं, जबकि भारत की मेधा और समाधि सूक्ष्म अनुभूति कहती है कि जीवात्मा शुद्धबुद्ध-चैतन्य है, जो दोष हैं, वे तो मायाजन्य है, जिसे वह सच मान रहा है।
इस तथ्य को हम इस पौराणिक कथा के माध्यम से अधिक स्पष्ट रूप में समझ सकते हैं। महाराज कुवलयाश्च का जब विवाह हुआ तो उनकी पत्नी मदालसा ने एक शर्त रख दी कि मैं जो भी करूँ, आप मुझे टोकना मत। राजा ने शर्त मान ली। कालान्तर में महारानी को बेटा हुआ। रानी का पुत्र रो रहा था, तब उसे चुप कराने के लिये माँ लोरी गा रही है- रे तात, तू रो रहा है। बावले ! कौन-सा अभाव है, दैन्य प्रकट कर रहा है, दुःख मान रहा है। तू सपने को सच समझ रहा है। जिसे तू जागना समझता है, वह तो मोह की निद्रा है। मोह की नींद से जागेगा तो तू अपने को पहचान लेगा कि तू तो पूर्ण है, तू तो शुद्ध-बुद्ध है, तू निरंजन है, निर्विकार है। तू माया से भिन्न है, मायिक नहीं है। तू पन्च तत्त्वों से निर्मित देह नहीं है, यह नाम तो काल्पनिक है, इसलिये हे वत्स! चुप रह और इन बातों पर विचार कर...
लोरी गा-गा करके ही माँ ने संस्कार दे दिये। यही भाव उसके गर्भावस्था में भी संचित थे। संस्कार क्या है ? माँ का संकल्प है, जिसे वह बालक के अन्तर्मन में प्रतिष्ठित करती है। बालक के संस्कार बन गये, बड़ा हुआ तो आत्म तत्त्व का साक्षात्कार पाने के लिये वह राज महल छोड़कर चल दिया।
मदालसा को दूसरा बेटा हुआ, फिर तीसरा बेटा हुआ। माँ मदालसा की वे ही लोरियाँ और वे ही संस्कार। दूसरे और तीसरे पुत्र भी वन को चले गये।
मदालसा ने तीन पुत्रों को आत्म साक्षात्कार का संस्कार दिया। महाराज कुवलयाश्च विचलित हो गये, चौथे पुत्र के समय हाथ जोड़कर महारानी के सामने खड़े हो गये– “कल्याणि ! मुझे तुम्हारी शर्त याद है। परंतु प्रिये! मुझे अपने राज्य की चिन्ता सता रही है। यदि चौथा पुत्र भी विरक्त हो गया, तब इसका क्या होगा ?” मदालसा ने पति की चिन्ता समझी और मुस्करा दी। माँ ने गर्भावस्था में भाव बदले। चौथे पुत्र के लिए वो लोरी गाती– वत्स क्यों रोता है संसार में जो भी कुछ है तेरा ही तो है, तू राजा है, इस सबका स्वामी है। तुझे क्या कमी है? मदालसा लोरी गाती– वत्स! रोना नहीं, राज्य करते हुए सुहृदों को प्रसन्न रखना, साधुओं की रक्षा करना, यज्ञों का सम्पादन करना, दुष्टों का दमन करना तथा गो-ब्राह्मणों की रक्षा के लिये प्राणों का उत्सर्ग करने की जरूरत हो तो प्राणों का भी मोह मत करना–
प्रत्येक माँ के अपने बालक के सम्बन्ध में कुछ संकल्प होते हैं, इसमें कोई संदेह नहीं कि माँ के इन संकल्पों के द्वारा गर्भस्थ शिशु के संस्कार बनते है। प्रह्लाद का भक्ति-संस्कार माँ के गर्भ में हुआ था एवं अभिमन्यू का शौर्य-संस्कार भी माँ के गर्भ में हुआ था। कंस के भय से सतायी हुई माँ देवकी ने अपने गर्भ में 'परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्' के संकल्प को देखा था।
पुराणो में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनसे प्रमाणित होता है कि माँ संस्कार के रूप में जीवन की आधारशिला को प्रतिष्ठित करती है। ध्रुव की माँ सुनीति ने छोटे से बालक को कितना प्रबल संस्कार दिया था। जीजा बाई का नाम इतिहास में इसीलिये प्रसिद्ध है कि उन्होंने छत्रपति शिवाजी में ऐसे संस्कार रचे थे।