Garbh Sanskaar - 4 in Hindi Spiritual Stories by Renu books and stories PDF | गर्भ-संस्कार - भाग 4

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गर्भ-संस्कार - भाग 4

नौ माह के भाव-विश्व पर निर्भर शिशु के जीवन की रचना

नौ माह में माँ जितना आनंदमय जीवन जीती है उसी प्रमाण में शिशु को उसके जीवन में आनंद प्राप्त होता है। उदा. नौ माह में माँ ने कुल 7 महिने आनंद में बिताये हो, और मान लो शिशु का जीवन 90 वर्ष का हो, तो उसके जीवन का 70 वर्ष का जीवन वह आनंदमय बितायेगा। इस तरह माँ नौ माह में जितना सकारात्मक जीवन जीती है उतना ही सकारात्मक जीवन शिशु का गर्भ में ही निश्चित हो जाता है। अब इसे हम और अच्छे ढंग से समझ ले।

ईर्ष्या, द्वेष, शत्रुत्व या इस प्रकार की भावनाएं जिस प्रमाण में गर्भवती के मन में उत्पन्न होती है उसी प्रमाण में इन गुणों को स्विकार करने का प्रशिक्षण शिशु को प्राप्त हो जाता है। एक स्त्री जाने अनजाने में अन्य स्त्रियों के प्रति या कई बार अपने आप्तजनों के लिए इस तरह के नकारात्मक भाव उत्पन्न करती है तो इन भावों के प्रशिक्षण के साथ अपने ही आप्तजनों के लिए शिशु के जीवन में नकारात्मकता एवं दूरीयाँ निश्चित कर देती है। इसके विपरीत स्त्री गर्भावस्था में प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रेम, आदर व सन्मान का भाव उत्पन्न करती है तो वह शिशु इन्ही गुणों को धारण कर अपने आप्तजनों से नजदीकियां बनाये रखता है एवं सभी के बीच लोकप्रिय भी होता है। इसलिए गर्भवती क्या कर सकती है? ....

दुनिया में प्रत्येक बुरे व्यक्ती के अंदर भी कुछ ना कुछ अच्छाई छुपी होती है और प्रत्येक अच्छे से अच्छे व्यक्ति के अंदर कुछ बुराई छुपी हो सकती है, परंतु ये हमारा दृष्टीकोन होता है कि उसमें हम क्या देखते है, और जो देखते है वही हमारे स्वभाव में आने लगता है। और यहाँ विशेषतः गर्भवती का दृष्टीकोन उसके शिशु को भी प्रशिक्षित करता रहता है। अतः गर्भवती इन दिनों प्रत्येक व्यक्ती में अच्छाई देखे और बुराईयों को नजर अंदाज कर दे। यही उसके शिशु के भावी जीवन के हित में है।

अपने घर के व्यक्तियों से शुरुआत करें। स्त्री अपने ससुराल एवं मायके के लोगों से यह शुरुआत कर सकती है। सर्व प्रथम आँखे बंद करें और अपने पती को मन ही मन याद करें। उनकी पाँच बाते जो आपको अच्छी लगती है उनको कहें। आप मन ही मन अपने पति की तारिफ कर रही हो पर ध्यान रखना यह पति आपके गर्भस्थ शिशु का पिता है। शिशु के मन में इस समय पिता के प्रति आदर सम्मान का संस्कार होने के साथ साथ उनके 5 अच्छे गुणों का संस्कार भी हो जाता है। इसी तरह दुसरे दिन अपनी सास के साथ याने शिशु की दादी के साथ यही क्रिया करे। ध्यान रखें इसके लिए उनका सामने मौजूद होना जरुरी नही है। यह क्रिया आप केवल अपने मन ही मन उनको सम्मुख याद करके कर रही हों, जैसे आप प्रत्यक्ष ही बात कर रही हो। ऐसे ही ससुराल एवं मायके के प्रत्येक व्यक्ती पर यही प्रयोग करे। समझो आपने घर के कुल 10 लोगो पर यह प्रयोग किया तो उनके 50 अच्छे गुणों का संस्कार आपने शिशु पर कर दिया एवं साथ साथ उनमें एवं शिशु में आपने नजदीकियाँ बना दी एवं स्नेह भर दिया। घर के व्यक्तियों के बाद अडोस पडोस व रोजमर्रा के जीवन में आने वाले लोगों पर भी यह प्रयोग आप करें। इससे आप भी सकारात्मक सोच में डुबी रहेंगी, शिशु का जीवन भी सकारात्मक एवं आपके द्वारा चुने हुए सकारात्मक गुणों से युक्त बन जाएगा। गर्भसंस्कार का यह एक महत्वपुर्ण प्रयोग है।

व्यक्तियों में अच्छाइयाँ तो हमने नाप ली। लेकिन अब कई स्त्रीयों को वस्तुओं में, वर्तमान स्थिती-परिस्थितियों में कमियाँ ढुंढने की या नाम रखने की आदत होती है। इससे कमियों का व खामियों का भाव शिशु में बन जाता है एवं शिशु के जीवन में कुछ कमियों एवं खामियों की संभावना रह जाती है। अतः स्त्री को गर्भावस्था में प्रत्येक स्थिती परिस्थिती में समाधान रखना चाहिए। प्रत्येक वस्तु में अच्छाई देख कर उसको तारीफ की नजर से देखना चाहिए। बुरी वस्तुओं को नजर अंदाज करना चाहिए। इससे शिशु के जीवन में परिस्थितियाँ अच्छी बनी रहती है और विपरीत परिस्थितियों को वह आसानी से मात दे देता है। उसको अच्छी चीजों का, वस्तुओं का भली-भाँती चुनाव करना आता है। विपरीत चीजें या वस्तु उसके भाग्य में आती ही नही। उसका भावी जीवन “सुजलाम सुफलाम” बन जाता है।

जितना सुंदर व सकारात्मक जीवन नौ माह में गर्भवती जीती है उतना ही सुंदर व सकारात्मक जीवन उसके शिशु को प्राप्त हो जाता है।

गर्भस्थ शिशु से क्या बात करें? कैसे बात करें ?
हमारे पास दो मन है। एक हमारा बाह्य मन, एवं दूसरा हमारा अंतर्मन। जिसे हम जागृत मन एवं अर्धजागृत मन के नाम से भी जानते है। हमारा बाह्य मन हमारे जागते हुए कार्य करता है, परंतु अर्धजागृत मन 24 घंटे कार्यरत रहता है। बाह्य मन से सोची प्रत्येक बात जीवन में सच हो यह आवश्यक नही, परंतु अंतर्मन में जो बात स्थापित हो जाये वह जीवन में सत्य हो कर ही रहती है क्योंकि बाह्यमन केवल हमारे अंतर्मन से जुडा रहता है और अंतर्मन यह वैश्विक मन से जुडा रहता है, एवं एक वैश्विक मन अनंत अंतर्मनों से जुड़ा रहता है। वैश्विक मन अर्थात ब्रम्हांड, ब्रम्हांडमय स्वरुप, ईश्वरीय सत्ता, परब्रम्ह इ.।

बाह्यमन बहुआयामी है। उसके पास चुनाव करने की शक्ति है। वह तय कर सकता है कि क्या अच्छा है, क्या बुरा, क्या लेना है, क्या छोडना है आदि। लेकिन अंतर्मन के पास कोई विकल्प नही है। उसे तो वह हर बात स्वीकार करनी है, जो बाह्य मन से उसके पास पहुंचती है। चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक, और जो अंतर्मन में आ जाए वह वैश्विक मन में स्थापित हो जाता है। जो वैश्विक मन में स्थापित हो जाए वह हमारा भाग्य बन जाता है, परंतु एक बात अच्छी है कि बाह्य मन में आने वाली प्रत्येक बात अंतर्मन में संचित नही होती। अंतर्मन में वही जाता है जिसमें आपका बाह्यमन विश्वास कर लेता है, आस्था रखता है। जो बाह्य मन गहराई से सोच लेता है।

हमारी तरह शिशु के पास भी दो मन होने चाहिए। लेकिन ऐसा नही होता। शिशु के पास केवल एक मन है, और वह है अंतर्मन। बाह्यमन तो उसे गर्भ से बाहरी माया जगत में आने के बाद प्राप्त होता है और समय के साथ विकसित होता रहता है। गर्भावस्था में माँ के अंतर्मन से शिशु का अंतर्मन जुड़ा रहता है एवं इसी माध्यम से गर्भ संस्कार की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है।

यहाँ यह महत्वपुर्ण हो जाता है कि माँ के मन में आने वाला प्रत्येक विचार जो उसके अंतर्मन को छू ले, चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक शिशु के अंतर्मन में जाना निश्चित है। अतः यहाँ गर्भ संस्कार के स्वरुप में सुसंस्कार एवं कुसंस्कार दोनों की संभावना बन जाती है।

गर्भस्थ शिशु से कैसे बात की जाए ? क्या बात की जाए यह गर्भसंस्कार का अत्यंत महत्वपुर्ण भाग है। अब यह तो हम समझ चुके हैं कि शिशु के पास माँ के अंतर्मन व्दारा जाने वाला प्रत्येक भाव चाहे वह कैसा भी हो शिशु के अंतर्मन में स्थापित हो जाता है। नियम के अनुसार प्रत्येक अंतर्मन वैश्विक मन से जुडा रहने के कारण शिशु के जीवन में वह भाव उजागर होना निश्चित हो जाता है, इसलिए नौ माह में किये गये गर्भ संस्कार अत्यंत शक्तिशाली बन जाते है । ब्रम्हांड का यह भी नियम महत्वपुर्ण है कि व्यक्ती के जैसे भाव एवं विचार रहते है वैसा ही उसका जीवन बन जाता है।

प्रारब्ध होता है परंतु वह 5 से 10 प्रतिशत होता है, एवं जन्मोपरांत संस्कार होते ही नही है ऐसा भी नही है, परंतु गर्भस्थ संस्कार ही जीवन में निर्णायक साबित होते है, क्योंकी प्रारब्ध एवं जन्मोपरांत संस्कारो से इनका या तो प्रमाण ज्यादा होता है या यह ज्यादा शक्तिशाली होने के साथ ज्यादा प्रभावशाली भी होते है।

गर्भवती के मन में जितने विचार आते है, वह अप्रत्यक्ष रुप से शिशु के साथ बात करने जैसा ही है। माँ अगर कुछ पढ़ती है तो वह भी अप्रत्यक्ष रुप से शिशु संवाद बन जाता है। माँ कुछ सुनती है तो वह भी अप्रत्यक्षतः शिशु से संवाद ही है, परंतु जान बुझकर शिशु के साथ प्रत्यक्ष बात करना यह महत्वपुर्ण है, लेकिन एक गर्भस्थ शिशु से हम बात भी करेंगे तो क्या ? सर्व प्रथम शिशु से इस तरह बात करने का तात्पर्य है, एक शिशु को आनंदमय रखना, दुसरा शिशु पर सकारात्मक संस्कार करना।

          आरामदायक कुर्सी पर बैठकर या किसी भी आरामदायक स्थिती में बैठकर या सोकर किसी भी समय शिशु संवाद का यह प्रयोग आप कर सकती हैं। सबसे पहले पुरा शरीर ढीला व शिथिल कर दें। अपनी सांसो पर ध्यान दें। 8 - 10 गहरी सांसे लेने के बाद व सहज होने के बाद अपना ध्यान अपने गर्भस्थ शिशु के पास ले जाऐं। चेहरे पर हल्की मुस्कान लाये एवं शिशु को आवाज दें। (संपुर्ण संभाषण मन ही मन में हो) “मेरे शिशु मेरे राज दुलार....जय श्री कृष्ण !.. मैं तुम्हारी माँ हुँ माँ! मै आतुर हुँ तुम्हे देखने के लिए छूने के लिए... तुम्हे अपनी गोद में लेने के लिए... लेकिन यह तभी संभव है, जब यह नौ माह का सुखद गर्भवास पुर्ण हो जाये......लेकिन अभी भी तुम मेरे भीतर ही हो... गोद में लेने से भी अधिक ज्यादा करीब हो...... लो मैं तुम्हे बचपन का एक किस्सा सुनाती हुँ। तुम्हें बहुत मजा आएगा सुन कर। एक बार है ना... मैं अपने माँ व बापुजी के साथ कृष्णजी के मंदिर गई थी..... वहाँ है ना... बहुत सारे लोग थे। मंदिर में है ना.. कृष्णजी की बहुत प्यारी मूर्ती थी। कृष्णजी के सामने लड्डुओं का भोग रखा हुआ था। सब के जैसे मैने भी अपने हाथ जोडे। माँ मुझे कृष्णजी की मुर्ती दिखा रही थी लेकिन मेरी नजर तो उन लड्डुओं पर टिकी हुई थी। आरती शुरु हो गई, मैं भी सबके जैसे तालियाँ बजा रही थी। सबने आरती ली। अब लड्डुओं का प्रसाद बाँटा जा रहा था। हमको भी एक-एक लड्डु मिला। मैने अपना लड्डु तुरंत खा लिया और माँ बाबुजी का लड्डु माँगने लगी... उन्होंने भी मुस्कुराते हुए अपना आधा-आधा लड्डु मुझे खिला दिया.......”

आपको समझने के लिए यह एक उदाहरण के रुप में एक प्रसंग का वर्णन किया। ऐसे ही बचपन में सच में घटे हुए सभी सुखद प्रसंग आप अपने शिशु के साथ बाँट सकती हो और सुहाने बचपन का संदेश शिशु को दे सकती हो। अब इस उपरोक्त संभाषण से भगवान का होने का संस्कार.. आरती द्वारा भक्ति का संस्कार ... प्रसाद द्वारा अन्न का संस्कार.. साथ ही साथ बचपन सुहाना होने के साथ दुनिया भी सुहानी होने का संस्कार शिशु पर हो गया।

ऐसे ही अपनी पाठशाला के, सीखने के, कुछ जीतने के, घुमने के, परिवार के कुछ पाने के, खुशियों के त्यौहारों के, जन्मदिन विवाह आदि खुशनुमा-समारोह के कई प्रसंगो में से एक-दो प्रसंग आप अपने शिशु को सुना सकते हो। इस प्रक्रिया में सुसंस्कारो के साथ-साथ आप एवं शिशु दोनो भी आनंदमय एवं सकारात्मक भावों से युक्त हो जाते हो।

पढना भी शिशु से बात करनें का एक अच्छा तरीका है। हम किसी को कहानी सुनाते हैं तो वह हमें कहनी पड़ती है। उसी तरह हम कोई कहानी पढ रहे है तो गर्भस्थ शिशु वह सुन रहा होता है। यहाँ कहानी या अन्य सामग्री पढते समय शिशु पर उस सामग्री में उपलब्ध सकारात्मक भावों का संस्कार हो जाता है। साथ ही यहाँ एकाग्रता का संस्कार, भाषा का संस्कार भी हो जाता है।

शिशु के लिए पंचतंत्र की कहानियाँ हम चुन सकते हैं। गीता प्रेस गोरखपुर में बच्चों के लिए उपलब्ध साहित्य आप ले सकते हो, क्योंकि भले ही बच्चा गर्भ में हो, हम जान चुके है कि वह सामान्य बच्चे से भी अधिक ग्रहणशीलता गर्भस्थ अवस्था में रखता है। यह सामग्री आप नौ माह तक थोडा-थोडा करके पढ़ सकती हैं। इसके अलावा धार्मिक, आध्यात्मिक, शैक्षणिक, शौर्यता, मातृ-पितृ भक्ति, ईश्वर भक्ति, व्यक्तित्व विकास आदि प्रेरणादायक, ज्ञानयुक्त व आनंदपुर्ण साहित्य पढें। हमारी एक 'ब्रम्हांड मानस रहस्य' नाम की पुस्तक है, इसे भी आप गर्भावस्था में 2-3 बार पढ सकती हैं।

शिशु से बात करने का एक और उत्तम तरीका है, श्रवण करना या सुनना । कोई हमें कुछ कह रहा है तो वह हम सुनते है। गर्भवती स्त्री कुछ सुन रही है तो उसके माध्यम से गर्भस्थ शिशु भी सुन रहा है। इस तरह यहाँ भी अप्रत्यक्ष रुप से माँ शिशु से बात ही कर रही है, परंतु यहाँ दिनभर किसी न किसी माध्यम से गर्भवती कुछ न कुछ सुनती ही रहती है, पर जानबूझ कर शांत चित्त में बैठकर शिशु के लिए सुनना यहाँ महत्वपूर्ण है। इसके लिए कुछ आध्यात्मिक गीत संगीत का चुनाव हम कर सकते हैं। कुछ मन प्रसन्न करने वाले ज्ञानयुक्त प्रवचन या अन्य व्याख्यान हम चुन सकते है । गीत-संगीत सुनते समय केवल संगीत को महत्व न देते हुए गीतों में उपयुक्त भावार्थ के पास भी ध्यान दें। संगीत व शब्दों की लयबध्दता में आप डुब जाओ तो यहाँ शिशु का ध्यान भी हो जाता है।

यहाँ आध्यात्मिक गीत संगीत, शांत भजन, ओंकार धुन, श्री कृष्ण संकीर्तन या अन्य मंत्र एवं नाम संकीर्तन की धुन आप चुन सकते हो।

इस प्रक्रिया से सकारात्मकता से भरे व आध्यात्मिक संदेश शिशु के भीतर जाते है, साथ ही शिशु शांत चित्त वाला हो जाता है। इस गीत संगीत एवं धुनों में से जो आपने बार-बार सुना हो या ज्यादा पसंद किया हो, वह शिशु के जन्मोपरांत शिशु को सुनाया जाए तो तुरंत उसका असर शिशु पर प्रकट होता है। उदा. के तौर पर, आपका शिशु कभी बहुत रो रहा हो उस समय शिशु छोटा होने के कारण शिशु भी आपको बता नही पाता, आप भी नही समझ पा रही हो वह क्यों रो रहा है। ऐसे समय में गर्भावस्था में शिशु ने सुना हुआ संगीत आप बजा दो तो वह गीत संगीत या धुन शिशु के लिए दवा और दुआ दोनों का काम करती है। शिशु कुछ ही देर में शांत हो जाता है।

गायत्री मंत्र का उच्चारण एवं ध्यानयुक्त श्रवण भी गर्भस्थ शिशु के लिए अत्यंत लाभदायक है। गायत्री मंत्र के 24 अक्षर हमारे तथा शिशु के विकसित हो रहे शरीर के 24 अंगो पर अपना शक्तिशाली प्रभाव डालते है। 

श्रवण विधी करते समय आप मन व शरीर को रिलॅक्स कर दें। आरामदायक स्थिती में शांत चित्त से आँखे बंद कर यह विधी करें। जिससे शिशु पर विशेष प्रभाव पड सके। गीत संगीत, ओंकार धुन या कृष्ण नाम संकीर्तन रात को सोते समय भी सुन सकते हो। दिन में काम करते समय भी मेडिटेशन म्युजिक या सुगम संगीत आप सुन सकते हो। कानों को आवाज मधुर लगनी चाहिए। जोरों से या कर्कश आवाज में कुछ भी ना सुनें। श्रवण करते समय हम तन्मय हो जाए तो गर्भस्थ शिशु भी ध्यान मग्न हो कर यह सब कुछ सुनता है। यह सभी प्रयोग आप कमरें में स्पीकर व्दारा सुन सकते हो या कान में हेडफोन लगाकर भी सुन सकते हो। हेड फोन में कान के बाहर से लगाए जाने वाले हेडफोन ज्यादा सुविधाजनक रहेंगे। कुछ चित्रों में पेट पर / गर्भ पर हेडफोन लगाया हुआ दिखाया जाता है, परंतु इससे कोई विशेष लाभ नही होता। माँ जो अपने कानों से सुनती है सिर्फ वही शिशु सुन सकता है।

साधना के समय, सुनते या पढ़ते समय वातावरण सुमधुर, सुरमयी व प्रसन्न रखने का प्रयत्न करें। वीणावादन, बांसुरी, संतुर, सितार, सुमधुर शास्त्रीय संगीत या अन्य मेडिटेशन म्युजिक के साथ मंत्र पठन, साधना, पढना, शिशु संवाद, ध्यान आदि प्रक्रिया आप कर सकते हो। पसंदीदा संगीत बार-बार सुननेसे भी शिशु को लाभ मिलता है।

श्रीमद्भगवत गीता के १८ अध्याय भावार्थ के साथ नौ माह में कम से कम एक बार सुनें या पढें । श्रीमद्भागवत सप्ताह एवं रामकथा आयोजन मिल जाए तो आजकल इनका सीधा प्रसारण धार्मिक टीवी चॅनलों पर मिल जाता है, या इनकी वीडीओ रीकॉर्डिंग भी मिल जाती है। प्रत्यक्ष सहभाग का अवसर मिले तो अवश्य सहभाग लें। नौ माह में आने वाले प्रत्येक त्यौहार की कथा कहानियाँ सुनें या पढें। जितने तन्मयता व पुर्णता के साथ हर त्यौहार मना सकें, मनायें। मंदिर में जाने के बाद घंटा नाद कर बंद आँखो से उस घंटा के नाद को सुनें। घर पे भी गर्भ के पास 'तीब्बेतियन बेल / ओम बेल' या अन्य घंटा का नाद सौम्य आवाज में गर्भ के पास अवश्य करें। आरती पर हाथ घुमाकर हम अपने चेहरे पर एवं सिर पर हाथ घुमाते है, इसको आरती लेना कहते हैं। गर्भवती आरती दो बार ले, दुसरी बार वह अपने गर्भपर हाथ घुमा दे। आरती का यह नियम प्रसुती उपरांत भी आजन्म एक माँ रख सकती है। आरती, स्तोत्र मंत्रादि श्रध्दा व आस्था से सुनने से शिशु को भी इसका प्रतिफल मिलता है। साथ ही साथ श्रध्दा, आस्था एवं ईश्वर भक्ति का संस्कार भी शिशु पर हो जाता है।

गर्भवती अंतर्मन की प्रार्थना, शिशु संवाद, शिशु ध्यान, गर्भ संस्कार मंत्र एवं आदि गर्भ संस्कार की प्रक्रियाओं में आगे दी हुई संकल्पना महत्वपुर्ण है ।

ब्रम्हांड का एक नियम व मनोविज्ञान का एक सिध्दांत है, लगातार अगर 21 दिनों तक आप कोई बात रट लो दोहरा लो, या अपना लो तो वह बात आपकी आदत बन जाती है या यूं कहो जीवन शैली बन जाती है। दुसरी तरह से, कोई बात आपको छोडनी हो या त्यागनी हो तो लगातार 21 दिनों तक उस बात पर आप संयम कर लो तो वह बात हमेशा हमेशा के लिए छुट जाती है। (बशर्ते उस छूटी हुई बात को फिर से आप जानबुझ कर अपनाओं नही।)

इसी तरह ब्रम्हांड का दुसरा एक नियम महत्वपुर्ण है कि ब्रम्हांड को, प्रकृती को इस बात से कोई सरोकार नही होता कि भूतकाल में आप क्या सोचते थे, क्या चाहते थे। इस बात से भी कोई खास सरोकार नही होता कि भविष्य में क्या होने वाला है। प्रकृती तो केवल यह देखती है कि वर्तमान में आपकी सोच क्या है, चाह क्या है। केवल वर्तमान की सोच, अंतर्मन में संचित चाह व मान्यता ही आपका भविष्य बन जाती है। अत: हम भविष्य में जो चाहते है, वह मंत्र की तरह वर्तमान में बार बार दोहराए व विश्वास रखे कि हमारी चाह पुर्ण हो चुकी है। इसमें भविष्य का कल्पनामय चित्रण वर्तमान में करना अर्थात विज्युलाईजेशन करने की प्रक्रिया भी आपकी माँग को, चाह को कई गुना प्रबल कर देती है।