सत्सङ्ग संस्कार
हीयते हि मतिः पुंसां हीनैः सह समागमात्।
समैच्च समतामेति विशिष्टैश्च विशिष्टताम्।। : हितोपदेश
अर्थ–“हीन लोगो की संगती से मनुष्य की बुद्धी भी हीन हो जाती है। श्रेष्ठ लोगो की संगती से बुद्धि भी निःसंयश श्रेष्ठ ही होती है।”
इसलिए केवल सत्संग को ही प्राधान्य देना चाहिए। गर्भवती के कानो पर आने वाला हर शब्द, हर एक अच्छा एवं बुरा शब्द गर्भज्ञान को अच्छा या बुरा बनाता रहता है। कहा गया है कि कुसंग से सती की भी मति भ्रष्ट हो जाती है तो सुकोमल गर्भ की बुद्धी भ्रष्ट हो जाये इसमें क्या आश्चर्य है?
सत्संगति बुद्धि की जड़ता को हरती है, वाणी में सत्य का संचार करती है, सम्मान की वृद्धि करती है, पापों को दूर करती है, चित्त को प्रसन्न करती है और दसों दिशाओं में कीर्ति को फैलाती है। यह सत्संग व्यक्ति, भक्ति, साहित्य, कार्यक्रम किसी भी माध्यम से हो सकता है। गर्भवती का नौ माह के सत्संग से शिशु का भविष्य उज्वल बन जाता है।
अच्छे लोगों का साथ करने से बुद्धि निर्मल और तेज होती है, सत्य बोलने की प्रेरणा मिलती है। बुद्धि के शुद्ध होने से अच्छे कार्य होते हैं, सत्य बोलने से वाणी का तेज बढ़ता है, मन से प्रसन्नता आती है। इसीलिये कहा गया है कि सज्जनों के साथ रहना चाहिये, और सज्जनों का ही संग करना चाहिये और सज्जनों से ही विचार-विमर्श और मित्रता भी करनी चाहिये। असज्जन से तो कोई सम्पर्क ही नहीं रखना चाहिये। एक गर्भवती माता नौ माह यह क्रम अपनाले तो सत्संग के सारे लाभ गर्भस्थ शिशु प्राप्त कर लेता है। जिस कारण वह अपने जीवन में भी सत्संग को ही अपनाता है।
सत्संग के विपरीत बातें गर्भावस्था में आ भी जाती है तो वह ना स्वीकारने का विकल्प गर्भवती के पास होता है। नकारात्मकताओं से मुक्त रहने से शिशु के जीवन में से नकारात्मकताऐं नदारद रहती है। गर्भवती प्रत्येक व्यक्ति, वस्तु, स्थिती-परिस्थिती में सकारात्मकता का बोध ले तो शिशु का जीवन भी सकारात्मकताओं से भर जाता है।
पवित्रग्रंथ पठण-श्रवण-मनन
यथा यथा हि पुरुषो नित्यं शास्त्रमवेक्षते।
तथा तथा विजानाति कर्तव्यमथ रोचते।। : भक्त वामन
अर्थ– “मनुष्य नित्य नियम से शास्त्रों का जैसे जैसे अध्ययन करता रहेगा वैसे वैसे उसे क्या सही क्या गलत इस बात की समझ व सच्चे कर्तव्य पालन की ईच्छा उत्पन्न होगी।”
धर्मात्मा संतान होने हेतु धर्मग्रंथो का हमेशा श्रवण-मनन-अध्ययन करें। जैसे हम ग्रंथ गर्भस्थ शिशु को पढ़कर सुना रहे हो, वास्तव में वैसा ही होता है। गर्भवती के लिए पढना अर्थात एक ध्यान की तरह ही है और वह जो पढती है वह शिशु संग संवाद बन जाता है।
श्रवण, ग्रंथो द्वारा हो या प्रत्यक्ष संभाषण द्वारा हो, दोनों का परिणाम गर्भ पर बहुत ज्यादा होता है। इसलिए गर्भवती स्त्री को सद्ग्रंथ या सद्भाषण या पवित्र व्याख्यान, प्रवचन, गीत सुनते रहना चाहिए एवं अपवित्र गीत या भाषण या कुग्रंथ कदापि श्रवण नही करना चाहिए। अपवित्र बात कोई करने लगे या गालियाँ देने लगे तो उसे फौरन मना कर दें या उसके मुँह न लगते हुए वहाँ से निकल जाये। घर में ही नींदनिय प्रकार हो रहा हो तो उसमें प्रत्यक्ष सहभाग न लें, एवं ना सुनाई दे ऐसा उस समय उपाय कर ले। नकारात्मक विषयों का सिनेमा, सिरियल व नॉवेल आदि देखने व पढने वाले का मन कभी भी पवित्र नही रह पाएगा। ऐसे में अच्छी संतान में भी दुर्गुण आ जायेंगे। सो गर्भवती गर्भावस्था में केवल सकारात्मक व पवित्र सुने, देखे व पढे। डरावनी कहानियाँ टाल दे। शोक प्रकट हो रहा हो वहाँ ना जाये। थोडे में कहूँ तो शिशु का चित्त प्रसन्न, पवित्र, उदात्त व तेजस्वी बने, ऐसा ही श्रवण, पठण, मनन, गर्भवती निरंतर करती रहे जिससे पक्का वैसी ही पवित्र, प्रसन्न, उदात्त व तेजस्वी संतान प्राप्त होगी इसमें कोई शंका नही है।
पवित्र ध्यान, चिंतन व वर्तन
इच्छेतां यादृशं पुत्रं तद्रपचरितांश्च तौ।
चिन्तयेतां जनपदांस्तदाऽऽचारपरिच्छदौ।। –श्रीवाग्भट
अर्थ– “जिस प्रकार की संतान चाहिए, उसी प्रकार का आचरण नित्य रखना चाहिए एवं चिंतन भी उसके अनुकुल होना चाहिए। जिससे निःसंशय वैसी ही मनोवांछित संतति हमें प्राप्त होती है।”
स्त्री-पुरुष के अंतःकरण में जैसे रंग व रुप की दृढ छाया होती है, वैसे ही रंग व रूप की संतान प्राप्त होती है।
विश्व में दुर्गुणी के बदले सद्गुणी, डरपोक के बदले निर्भय, मुर्ख के बदले बुद्धिमान्, नास्तिक के बदले आस्तिक, रोगी के बदले निरोगी व निष्कर्मी के बदले पुरुषार्थी बच्चे, माता पिता के स्तुत्य प्रयत्नों से उत्पन्न होने के सैकडो उदाहरण है। वस्तुतः मातापिता ही संतान के 'ब्रह्मदेव' है।
कृदुश्य त्यान बीभत्सं
किंचिदीक्षेन्न रौद्रां श्रृणुयात्कथाम् ।। – मत्सपुराण
“गर्भवती कोई भी अश्लील, अमंगल या भयानक दृश्य, मूर्ति या चित्र आदि हरगिज ही ना देखे या भयप्रद भुतप्रेतो की कहानियाँ ना सुने ना सुनाये।”
गर्भावस्था में भयोत्पादक बातें ना देखे ना सुने, ना सुनाये, ना सोचे, ना ही देखने की सुनने की ईच्छा व्यक्त करें। ऐसी नकारात्मक ईच्छाओं का तुरंत त्याग करें। कारण ज्यादातर स्त्रियों का मन प्राकृतिक रूप से कोमल होता है एवं गर्भावस्था में गर्भवती के मन पर किसी भी बात का जल्दी प्रभाव हो जाता है एवं वह प्रभाव आगे जिंदगी भर संतान पर बना रहता है। कोई भयप्रद व गंदी बातें बोल रहा हो तो तुरंत मना कर दें या वहाँ से उठकर चले जाये। गर्भवती अश्लील नाटक-सिनेमा, अभद्र चित्र या फोटो बिलकुल ना देखे। कुरूप व्यक्ति, मल विष्टा आदि अमंगल चीज, मृत व्यक्ती को ना देखे। संक्षिप्त में कहें तो जिन बातो से मन मलीन, भयभीत, दुःखी, कष्टी एवं उदास हो, ऐसी सभी वस्तू, व्यक्ती व विषयों का गर्भवती सर्वदृष्टिकोन से परित्याग करें और जिससे मन प्रसन्न, निर्भय, आनंदित व पुरुषार्थी बने, ऐसे विषयों को स्वीकार करें। जिससे संतान भी वैसी ही प्रसन्न, निर्भय, आनंदित व पुरुषार्थी बनकर जन्म ले। यह सभी अनुभव सिद्ध बातें है।