शाम का वक़्त था। नदी बिल्कुल शांत थी, जैसे उसने दिनभर की सारी बातें अपने भीतर समेट ली हों। पानी की सतह पर आसमान झुका हुआ दिख रहा था—नीला, हल्का-सा गुलाबी, और कहीं-कहीं सुनहरी लकीरों से भरा। उसी किनारे बैठी थी मीरा, हाथ में एक पुरानी डायरी और आँखों में ढेर सारे अनकहे सवाल।
मीरा को लगता था कि ज़िंदगी भी नदी जैसी है—बहती रहती है, बिना रुके, बिना पूछे। कभी तेज़, कभी ठहरी हुई। आज वह ठहरी हुई थी। शहर की भागदौड़, लोगों की राय, और “क्या सही है, क्या गलत”—इन सब से दूर, वह बस अपने होने के एहसास को सुनना चाहती थी।
नदी के उस पार एक नाव धीरे-धीरे सरक रही थी। नाविक की चाल में अजीब-सी तसल्ली थी, जैसे उसे मंज़िल की जल्दी ही न हो। मीरा ने सोचा—कितना सुकून होगा, अगर इंसान भी ऐसे ही बिना हड़बड़ी के आगे बढ़ सके।
उसी पल हवा ने उसके बालों को छुआ, और डायरी के पन्ने खुद-ब-खुद पलटने लगे। एक पन्ने पर लिखा था—
“अगर दुनिया तुम्हें समझ न पाए, तो क्या हुआ? खुद से समझौता मत करना।”
मीरा मुस्कुरा दी। यह पंक्ति उसने बरसों पहले लिखी थी, जब उसे लगता था कि उसकी आवाज़ कहीं खो जाती है। आज वही आवाज़ नदी के शोर में भी साफ़ सुनाई दे रही थी।
अचानक पास ही एक छोटी-सी लड़की आई, हाथ में काग़ज़ की नाव। उसने नाव को पानी में छोड़ा और बोली, “दीदी, देखो! मेरी नाव दूर जाएगी न?”
मीरा ने कहा, “ज़रूर जाएगी, अगर उसे बहने दिया जाए।”
काग़ज़ की नाव लहरों के साथ आगे बढ़ गई—कभी डगमगाती, कभी सीधी। मीरा ने महसूस किया कि उसकी ज़िंदगी की तरह ही है। डर तो हर मोड़ पर है, पर रुक जाना समाधान नहीं।
सूरज धीरे-धीरे पानी में उतरने लगा। आसमान का रंग बदल गया, और नदी एक बड़े आईने की तरह चमकने लगी। उस आईने में मीरा ने खुद को देखा—थोड़ी थकी हुई, पर पहले से ज़्यादा सच्ची। उसे समझ आ गया कि शांति बाहर नहीं, भीतर होती है; और हिम्मत शोर नहीं करती, बस साथ चलती है।
मीरा ने डायरी बंद की, गहरी साँस ली, और उठ खड़ी हुई। अब उसे जवाब नहीं चाहिए थे, बस भरोसा चाहिए था—खुद पर। नदी पीछे रह गई, लेकिन उसका बहाव मीरा के कदमों में उतर चुका था।
और उस शाम, पानी के आईने में आसमान के साथ-साथ
मीरा ने अपना भविष्य भी साफ़ देखा—खुला, बेख़ौफ़, और बहता हुआ।