पहचान
भीड़ के शोर में कहीं,
अपनी ही आवाज़ दब सी जाती है,
आईनों में चेहरा तो वही है,
पर आँखों की चमक गुम सी जाती है।
ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाते-उठाते,
ख़्वाहिशें पन्नों की तरह फट जाती हैं,
रिश्तों की डोर थामे रखते-रखते,
अपनी ही पहचान खो सी जाती है।
कभी सपना देखने वाली आँखें,
अब सिर्फ़ नींद ढूँढती हैं,
कभी गाने वाली धड़कनें,
अब खामोशियों में खुद को सुनती हैं।
दुनिया हमें नाम से जानती है,
पर नाम के पीछे का इंसान कहाँ है?
खुद से मुलाक़ात का वक़्त मिले तो,
शायद वही भूला चेहरा फिर जवां है।
पहचान गुम नहीं होती पूरी तरह,
बस परतों के नीचे छिप जाती है,
जो हिम्मत करता है खुद को खोजने की—
उसे फिर से वही रौशनी मिल जाती है।
✍️DB-ARYMOULIK✍️