मैंने मेट्रो में एक अंधे इंसान को देखा, तभी मैंने यह सोचा था।
(मेरी आँखें नहीं हैं)
मेरी आँखें नहीं हैं, मैं सिर्फ़ जज़्बात लिखता हूँ।
मैं किसी के शरीर को नहीं, उसकी आत्मा को समझता हूँ।
मेरी आँखें नहीं हैं, पर मैं हर स्पर्श को महसूस करता हूँ।
मुझे संसार दिखाई नहीं देता, पर मैं भी उसके भीतर रहता हूँ।
मेरी आँखें नहीं हैं, फिर भी मैं अच्छा-बुरा समझता हूँ।
मैं रंग-रूप नहीं देखता, मेरी आँखें नहीं हैं, फिर भी मैं लोगों से मिलता हूँ।
। रूपेश।