गांव की मिट्टी से उठी एक कलम, जिसने रच दिया ‘गांव से ग्लोबल तक’ का सपना!
🇮🇳 स्वतंत्रता दिवस विशेष में पढ़िए अभिषेक मिश्रा की मार्मिक और जोश से भरी कविता — एक सफर, जो पगडंडी से शुरू होकर अंतरिक्ष की ऊंचाइयों तक जाता है।
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# गांव से ग्लोबल तक
(स्वतंत्रता दिवस 2025 विशेष)
धान की खुशबू, मिट्टी की सौंधी,
पगडंडी का मीठा गान,
बरगद, पीपल, नीम की छाया,
झोंपड़ियों में सपनों का मान।
बैलगाड़ी की धीमी चाल में,
कच्चे आँगन का था सिंगार,
हाट-बाज़ार की चहल-पहल में,
गूँजते थे लोक-पुकार।
पर आई जब गुलामी की आँधी,
सूख गए खेतों के गुलाल,
माँ के आँचल में लहराते सपने,
टूट गए जैसे मिट्टी के लाल।
लाठी, गोली, कोड़े, जंजीरें,
रोटी आधी, भूख का गाँव,
फिर भी भारत–माँ के बेटों ने,
प्राण दिए, पर न झुकाया नाम।
चंपारण में उठी जो आंधी,
नमक सत्याग्रह ज्वाला बनी,
भगत, सुखदेव, आज़ाद की कुर्बानी,
जन-जन की मिसाल बनी।
सुभाष के नाद गगन में गूँजे,
"तुम मुझे ख़ून दो" का गीत,
वीर जवानों के रक्त से फिर,
लाल हुआ भारत का मीत।
15 अगस्त की भोर आई जब,
सूरज ने सोने रंग बिखेरा,
स्वतंत्र ध्वज नभ में लहराया,
पर सफ़र का था लंबा डेरा।
गरीबी, अशिक्षा, भूख, बीमारी,
अब भी थीं राह में काँटे,
पर गाँव के दृढ़ किसानों ने,
पसीने से सोना बिखराते।
हाथ में हल, आँखों में सपना,
गाँव ने मेहनत की मिसाल गढ़ी,
हरित–श्वेत क्रांति की बगिया से,
धरती की किस्मत बदल पड़ी।
शिक्षा की ज्योति जली जब,
ज्ञान की नदियाँ बह निकलीं,
तकनीक के पंख लगे तो,
भारत की ऊँचाइयाँ दिखीं।
आईटी, चंद्रयान, मंगल-यात्रा,
नभ के द्वार खुले यहाँ,
गाँव की मिट्टी का बेटा भी,
विश्व–विजेता बना जहाँ।
अब किसान का बेटा बनता,
वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर,
गाँव की बेटी खोल रही है,
विश्व मंच पर अपना दफ़्तर।
आज तिरंगे की छाँव तले,
हम खड़े हैं दृढ़ संकल्प लिए,
"गांव से ग्लोबल" की यात्रा में,
हर हिंदुस्तानी ने कदम दिए।
आओ इस आज़ादी पर्व पर,
प्रतिज्ञा हम सब फिर दोहराएँ,
गाँव की मिट्टी से जुड़े रहें हम,
पर दुनिया को भी अपनाएँ।
लेखक: अभिषेक मिश्रा 'बलिया'