मैंने माँ को धरती कहते सुना,
और धरती से माँ की ममता पाई।
जब हवा ने बाल सहलाए,
तो लगा, पूर्वजों की छाया आई।
बांसुरी नहीं सीखी,
पर पत्तों से राग निकाला है।
नदी की धार पे तैरते स्वप्न,
हर बूंद में अपना उजाला है।
हम वो हैं जो चट्टानों से बात करते हैं,
पेड़ों से गीत और गुफाओं से रात करते हैं।
हमने अग्नि में आदर्श जलाए,
धुएँ से संदेश फैलाए।
नदी हमारी माँ, जंगल हमारा रक्षक,
हमने सिखाया — जीवन कैसे हो निष्कलंक।
हमारे पर्वों में केवल उल्लास नहीं,
बल्कि इतिहास की धड़कन संग होती है।
हमने जड़ें नहीं छोड़ीं,
बल्कि परंपराओं से जीवन जोड़ा है।
हम आदिवासी हैं,
हमने इतिहास को धड़कनों में मोड़ा है।
वो तीर नहीं था जो छू गया,
वो तो पुरखों का आशीष था।
जो जंगल में आज भी गूंजता है,
वो कोई गीत नहीं — इंसानियत की रीत था।
मैंने पत्थरों को रोते देखा,
और नदियों को हँसते पाया है।
प्रकृति के हर अंश ने
मुझे मुझसे मिलाया है।
हमने जीवन किताबों से नहीं सीखा,
हमने कंद-मूलों में कविता जानी।
हमारी ऋतुएँ ही पाठशाला थीं,
हर फूल, हर काँटा — एक कहानी।
जब मैं नाचता हूँ,
तो मेरा हृदय नहीं, धरती धड़कती है।
और जब गाता हूँ,
तो जंगलों में गाथा बन गूँज उठती है।
मैं वो हूँ जो चूल्हे की राख में
नई उम्मीदें भी ढूँढ लेता हूँ।
जो भूखा भी हो,
फिर भी धरती को धन्यवाद देता हूँ।
मेरी आरती — सूरज की पहली किरण,
और मेरी पूजा — वर्षा की बूँदें हैं।
मेरा विश्वास अडिग है,
क्योंकि मैं माँ की मिट्टी में गूँथा हूँ।
अंतिम पंक्तियाँ
मैं धरती की धड़कन हूँ,
मैं जंगल की आँखों का सपना हूँ।
मैं पसीने की बूँदों में बसी आस्था,
मैं आदिवासी आत्मा का अपना हूँ।
मैंने जो खोया, उसमें भी पूजा की,
और जो पाया, उसमें सबका हिस्सा दिया।
मैं वह गीत हूँ जो कभी नहीं थमता,
मैं वह प्रेम हूँ — जिसे कभी शब्द नहीं मिला।
गीत का विवरण
यह गीत आदिवासी जीवन की आत्मा को स्वर देता है। इसमें धरती को माँ मानने वाले समाज की श्रद्धा, परंपरा, संघर्ष और प्रकृति से गहरे जुड़ाव को दर्शाया गया है। यह सिर्फ शब्दों का संग्रह नहीं, बल्कि जंगल की सरसराहट, नदियों की लहरें, और पूर्वजों की साँसों से बुनी हुई भावनाओं की धुन है। गीत हर उस आत्मा की आवाज़ है जो प्रकृति में परमात्मा को देखती है और जिसने अपने अस्तित्व को मिट्टी की महक से जोड़ा है।”