**ग़ज़ल: जुदाई की तड़प**
तेरे बिन सूना सा हर एक मंज़र रहा,
दिल में बस तेरा ही आलम बस्तर रहा।
खामोशी की चादर ओढ़े रातें जागतीं,
चाँद भी तन्हा, जैसे मुझ में बिखर रहा।
वो मुलाकातें, वो बातें, वो हँसी के पल,
अब ख्वाबों में बस धुंधला सा असर रहा।
साँसों में बसी थी जो तेरी खुशबू कभी,
अब आँसुओं का वो समंदर बिखर सा रहा।
गलियों में तेरी याद की सैर करता हूँ,
हर कदम पे दर्द का साया नुमाया सा रहा ।
क्या कहूँ इस जुदाई ने क्या-क्या छीना,
खुद से भी मेरा वजूद अब बे-सहर रहा।
तेरे बिना हर लम्हा इक सजा सा बन गया,
जिंदगी का हर रंग अब जैसे ,बे रंग सा लगा l
कभी नज़रों में थी तुझ से दुनिया सारी,
अब आँखों में बस तेरा ही अक्स रहा।
सुनहरी यादों का मेला दिल में सजता है,
पर हर याद में तेरी दर्द का सैलाब बहता रहा।
कहाँ गए वो वादे, वो कसमें, वो बातें,
अब बस तन्हाई का सफर अकेले ही कट ता रहा।
तू पास नहीं, फिर भी तू हर जगह बस्ता,
दिल का हर कोना तुझ से ही तो बस्तर रहा।
जुदाई की आग में जलता हूँ रात-दिन,
फिर भी तुझ में ही मेरा जीना बसर रहा।
कभी तो आएगा वो लम्हा मुलाकात का,
जो ख्वाबों में हर पल मुझ में संवर रहा।
इस दिल ने चाहा तुझ को हर साँस में बस,
पर जुदाई का दर्द ही अब तक बिखर रहा।
सुहेल अंसारी (सनम)