एक राजनीतिक चेहरा था जिसे वो बहुत ज्यादा पसंद करती थी इतना ज्यादा की उसके फोन का वॉलपेपर भी वो ही शख्स था पर मैं उसके खिलाफ...उसे बिल्कुल नापसंद करने वाली। हमारी अक्सर बहस इस बात पर हो जाती पर न वो मेरे रंग में कभी रंग पाई और न मै कभी उसकी पसंद को पसंद कर पाई ...हमारी राजनैतिक सोच कभी मिली नहीं बावजूद इसके हम हमेशा अच्छे दोस्त रहे...विचारों में अंतर कभी हमारे बीच की दोस्ती में दरार न ला पाया।
वो कभी मुझे खुद सा मासूम और सरल न बना पाई और मैं कभी उसको अपने जैसी खुराफाती चालाक न बना पाई ।मेरी ज्ञान भरी बाते उसके सरल मस्तिष्क में टिक ही नहीं पाती और उसकी सरलता भरी बाते मेरे चंचल हृदय में कभी समा न पाई।
पर फिर भी हमारा रिश्ता दुनिया की सब उम्मीदों से परे एक पवित्र बंधन था।
उसने एक बार कहा था कि मैं तुझ पर एक किताब लिखूंगी तब मुझे क्या मालूम था कि मुझे अपने ही मनोभाव उसके लिए लिखने पड़ जाएंगे और तब भी मेरे पास शब्द कम पड़ जाएंगे।
उसकी शादी की पार्टी बाकी थी तो मेरी जॉब की पर शर्त ये थी कि उसकी शादी पहले हुई तो वो पहले पार्टी देगी और फिर मैं अपनी जॉब की ।वो कहती की एक बार तुझे शादी की पार्टी दे दूं फिर देखना तुझसे कितना खर्चा करवाती हूं...पर हुआ यूं कि वापस कभी मिलना हुआ नहीं...जब वो पीहर होती तो में जॉब पर होती और जब मैं घर होती तो वो ससुराल होती और वो पार्टी भी अब जिंदगी भर के लिए पेंडिंग रह गई शायद जब ऊपर कभी मुलाकात होगी तब ये हिसाब भी पूरा कर लेंगे।