कुछ ज़ख्म इतने गहरे होते है कि शब्द भी उन्हें छू नहीं पाते... सीने के अंदर कहीं एक बोझ-सा बैठ जाता है, जिसे न कोई सुन सकता है, न समझ सकता है। उस पीड़ा को व्यक्त करने की भी हिम्मत नहीं होती और अगर कोई हिम्मत करके किसी से कह भी दे, तो लोग कह देते हैं कि "इतना भी क्या टूटना, थोड़ा मज़बूत बनो..." पर वो क्या जानें, कि कुछ दर्द ऐसे होते हैं जो दिल को भी कमज़ोर कर देते हैं। हम मुस्कुराते हैं, बातें करते हैं, लेकिन अंदर ही अंदर वो ज़ख्म हमें तोड़ता रहता है। वो दर्द, जो दिखता नहीं... वही सबसे ज़्यादा चुभता है। शायद इसलिए ज़िंदगी सिखाती है, कुछ घाव किसी से कहने के लिए नहीं होते, उन्हें बस चुपचाप सहना और वक़्त के हवाले करना पड़ता है क्योंकि आख़िर में, वक़्त ही वो मरहम है जो उन ज़ख्मों को भर देता है।