**वक़्त के मारे हैं हम,
इतना सहा "नैना" कि अब दर्द भी शर्मिंदा है।
इस ज़माने ने जो दिए ज़ख़्म, वो तो सह लिए,
पर जब अपने ही निकले ज़हरीले, तब क्या करें?**
**न कोई शिकवा, न कोई शिकायत अब बची है,
भीड़ में खो गए चेहरे, और पहचान भी गई।
ग़ैरों का दर्द तो भूल जाना आसान था,
"नैना" पर अपनों की बेरुख़ी… रूह तक जल गई।**