झूठ के सामने मौन
साँसों का रुक जाना ही मृत्यु नहीं,
मृत्यु तो उस दिन होती है,
जब इंसान झूठ के सामने चुप हो जाए,
और सत्य बोलने का साहस खो दे।
धड़कता हुआ दिल भी निर्जीव हो जाता है,
जब अंतरात्मा की आवाज़ दबा दी जाती है,
और आँखें झूठ देख कर भी,
अन्याय को न्याय मान लेती हैं।
जीना सिर्फ़ साँस लेना नहीं है,
जीना है सत्य को ऊँची आवाज़ में कहना,
अन्याय के सामने दीवार बनकर खड़ा रहना,
चाहे दुनिया पूरी की पूरी झूठी ही क्यों न हो।
जिसने यह नैतिकता खो दी,
वह तो जीते-जी मरा हुआ है,
क्योंकि मृत्यु शरीर से नहीं,
पहले मन से शुरू होती है।