कोई तो बुझाओ विरह की आग को,
मत बजाओ अब सावन के राग को।
नफ़रत-सी हो गई है अब उजालों से,
अंधेरा रहने दो, बुझा दो चिराग़ को।
धो भी देता अगर दामन में होता,
कैसे मिटाऊँ दिल पर लगे दाग़ को।
उनके बग़ैर जीना दुस्वार हो गया,
दवा फेंक दो, डसने दे नाग़ को।
ज़ख़्म-ए-हिज्र कब तक सहूँ मैं अकेला,
कर दो कभी तो ख़ुदा इस इंतक़ाम को।