दोहा -कहें सुधीर कविराय
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विविध
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भीतर जहर भरे हुए, ऊपर से हैं संत।
जाने कैसे लोग हैं, नहीं पता क्या अंत।।
ज्ञान आज देने लगे, बेटी बेटे खूब।
सोच रहे माँ बाप हैं, मर जाएँ हम डूब।।
आहट अब आने लगी, विश्व युद्ध है पास।
मानवता की अब नहीं, बचती दिखती आस।।
सत्य बोलना आजकल, सबसे बड़ा गुनाह।
झूठ बोलना सीखिए, सबको मुफ्त सलाह।।
हम भी कविता कर रहे, कहते हैं यमराज।
भला कौन मुझसे बड़ा, आप बताओ आज।।
धरती की क्या फिक्र है, जाना जब यमलोक।
पर्यावरण की आप भी, नाहक करते शोक।।
जाने कैसा दौर है, देख रहे हम आप।
हर रिश्ते की आड़ में, होता खुलकर पाप।।
चिंतन करने के लिए, कहाँ समय है आज।
चिंता में ही हो रहे, सबके पूरे काज।।
ज़िद करके बैठे हुए, मम प्रियवर यमराज।
चमचा गीरी के सिवा, करना क्यों अब काज।।
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वर्तमान साहित्य
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मातु शारदे मौन हो, करती सोच विचार।
कलम उठा कर झूँठ की, प्रगति करे संसार।।
नौटंकी जैसा लगे, साहित्यिक परिदृश्य।
रंग पोत कर बिक रहे, डूबने लगा भविष्य।।
पिंगल सेवा आड़ में, होते कैसे खेल।
अब तो ऐसा लग रहा, बनी अजूबा रेल।।
व्यापारी बन कर रहे, खुलेआम व्यापार।
ये कैसे परिदृश्य में, दिखता अब व्यभिचार।।
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प्रकृति (नगण 111)
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कठिन साधना संत की, सच्चे मन के भाव।
उनके जीवन में कभी, होता नहीं अभाव।।
सरल सहज जीवन रखें, मन को रखिए साफ।
ईश्वर भी करते सदा, मानव दोष को माफ।।
प्रकृति का करिए सदा, आप सभी सम्मान।
मानव जीवन का तभी, निश्चित ही उत्थान।।
नयन नीर से क्यों बहे, बड़ा प्रश्न है आज।
इसके पीछे है छिपा, गुपचुप कोई राज।।
राम लखन वन को चले, शीश झुका सिय साथ।
सकल अयोध्या को लगा, अब क्या अपने हाथ।।
दिखा भरत को निज नगर, जैसे प्राण विहीन।
गये राम वन जब सुना, लगा हुए वो दीन।।
हनुमत जी कुछ कीजिए, होते हरदम युद्ध।
बेबस दिखते आज हैं, लगता जैसे बुद्ध।।
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जन्मदिन / शुभकामना
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आप सभी को मैं करूँ, शत-शत बार प्रणाम।
आओ मिलकर हम लिखें, नव जीवन आयाम।।
जीवन पथ पर आपको, मिले नया आयाम।
आगे बढ़ करिए सदा, नित-नित नूतन काम।।
जन्म दिवस फिर आ गया, मुझको लगे बवाल।
समझ नहीं कुछ आ रहा, लगता ये जंजाल।।
एक वर्ष के बाद फिर, दिन आया ये आज।
निकट और है आ गया, मम यमलोकी राज।।
चलते फिरते आ गया, जन्म दिवस मम आज।
समय छुड़ाता जा रहा, शेष बचा बहु काज।।
नाहक हम हर्षित हुए, दिवस एक फिर बार।
हर दिन जैसा आज है, बदला क्या संसार।।
जन्म दिवस पर आपसे, कब चाहूँ उपहार।
हमको केवल चाहिए, थोड़ा प्यार दुलार।।
जन्म दिवस पर आपसे, एक निवेदन आज।
अपने बड़ों को मान दें, यही बड़ा है काज।।
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गुरु
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गुरुवर देखें कर्म को, भूल रहे हम आप।
हम सबसे नित हो रहा, नादानी में पाप।।
गुरु वाणी का कीजिए, आप सभी सम्मान।
तभी सफल हो आपका, मिला विज्ञ गुरु ज्ञान।।
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भावना
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जैसी जिसकी भावना, वैसा ही परिणाम।
बिना स्वार्थ हर काम से, मिलता सुख का धाम।।
माँ गोदी सम पालना, दूजा क्या है मित्र।
ऐसे प्यारे दृश्य का, मन में रखिए चित्र।।
सूना हो सब आँगना, सुता विदाई साथ।
स्मृतियों में है घूमता, खाली अपना हाथ।।
आज स्वार्थ के दौर में, किसको किससे प्यार।
बिना बात के ठानते, अपने ही अब रार।।
आज हमारी भावना, कुंठाग्रस्त शिकार।
स्वयं नहीं हम जानते, क्या अपनी दरकार।।
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प्रभाव (जगण 121)
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किस पर कितना रह गया, यारों आज प्रभाव।
इसीलिए तो सभी को, होता नित्य अभाव।।
बुद्धि ज्ञान उपयोग सब, मात्रा करते रहते रोज।
जी भर मेहनत रात दिन, रहे सत्य को खोज।।
चाहे जितना कीजिए, व्यर्थ आप तकरार।
बदले में कुछ भी नहीं, हाथ लगेगा सार।।
शांति सुघड़ होना सदा, देता भारी पीर।
उल्टे सहना आपको, कष्ट बड़ा गंभीर।।
जब दे रहे उधार हो, करिए खूब विचार।
उम्मीदों को छोड़कर, करो खूब सत्कार।।
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अंगद (भगण 211)
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कैसी रंगत दिख रही, मानव मन की आज।
क्या ये संगत का असर, या फिर कोई राज।।
अंगद पैर जमा दिए, रावण के दरबार।
दरबारी गण मौन थे, दिखता दुर्दिन सार।।
कुंठित सारे लोग हैं, दिखते चहुँदिश आज।
होते उनके हैं सभी , मुश्किल से सब काज।।
बेबस अरु लाचार है, सारे निर्धन लोग।
ईश्वर का यह कोप है, या केवल संयोग।।
बैरंग वापस जा रहे, कुंठित होकर लोग।
रिश्ते उनसे पूछते, क्या हम कोई रोग।।
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आसन (२११)
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सिंहासन जो हैं चढ़े, उनके ऊंचे भाव।
अंदरखाने देखिए, होता बहुत अभाव।
दामन नहीं छुड़ाइए, मातु- पिता से आज।
मुश्किल देगा कल यही, किया आज का काज।।
आसन वासन कुछ नहीं, ये सब महज प्रपंच।
सभी चाहते आज हैं, केवल अपना मंच।।
दुर्दिन के इस दौर का, क्या वो जिम्मेदार।
जिसके हाथ में कुछ नहीं, जो बेबस लाचार।।
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उपकार
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करते जो उपकार हैं, रखते मन में धीर।
खुश रहते हर हाल में, कहलाते वे वीर।।
उपकारों की आड़ में, स्वार्थ सिद्ध का खेल।
चहुँदिश दिखता आज है, जैसे कोई रेल।।
नाहक ही उपकार का, ठेका लेते आप।
ये सब तो बेकार है, करिए जमकर पाप।।
उपकारों को आजकल, मिलता कितना मान।
हँसी उड़ाते जो फिरें, उनका होता गान।।
मत करिए उपकार का, अपने आप बखान।
इससे होगा आपका, निश्चित ही अपमान।।
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कंचन (२११)
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कंचन काया का करो, आप नहीं अपमान।
निज नूतन व्यवहार से, खींचो सबका ध्यान।।
बेबस दिखते लोग जो, उनका क्या है दोष।
फिर उन पर हम आप क्यों, दिखा रहे हैं रोष।।
अब धन दौलत के लिए ,आज हो रहे खून।
लोग समझते हैं कहाँ, ये तो क्षणिक जुनून।।
तन मन निर्मल आपका, रहे सदा ही साथ।
तब ईश्वर की हो कृपा, ऊंचा हो तव माथ।।
बरबस लालच में फँसे, जाते क्यों हम आप।
खुद ही अपने कृत्य से, भोग रहेशं अभिशाप।।
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गगरी (सगण 112)
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गगरी सिर रखकर चली, गोरी पनघट ओर।
चंचल मन के भाव का, नहीं पता है छोर।।
चलनी से हम चालते, अपने चाल चरित्र।
फिर भी मिलते हैं नहीं, हमको अच्छे मित्र।।
करनी ऐसी कीजिए, बने नहीं संताप।
वरना सब संसार में, कहलाएगा पाप।।
हमने जिनको प्यार से, दिया मान सम्मान।
सबसे आगे हैं वही, करते ज्यादा दान।।
उसके चाल चरित्र के, जो हैं ठेकेदार।
आज वही हैं कर रहे, राजनीति व्यापार।।
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जगन्नाथ( 1221)
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जगन्नाथ रथ खींचते, मिलकर भक्त अपार।
खुशियों के सैलाब से, प्रमुदित हर घर द्वार।।
डोला सजकर है चला, अद्भुत दृश्य अनंत।
दीवारें सब गिर गईं, अमीर गरीब या संत।।
बहन सुभद्रा को लिए, बलदाऊ भी साथ।
जगन्नाथ का रथ चला, उन भक्तों के हाथ।।
जग में बड़ा प्रसिद्ध है, यात्रा भव्य विशाल।
जगन्नाथ जी जब चलें, लेने मौसी हाल।।
उमड़ा जन सैलाब है, रथ यात्रा में आज।
जगन्नाथ सरकार हैं, जिनका जग में राज।।
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सावन (२११)
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आया सावन निकट है, ताव दिखाए ताप।
इंद्र देव का कीजिए, सब मानव मिल जाप।।
सावन में अब दिख रहा, नहीं पुराना चित्र।
सखियाँ केवल रह गईं, हैं आभासी मित्र।।
सावन शिव का मास है, जल अर्पण हो खूब।
काँवड़ लेकर चल रहे, भक्त भक्ति में डूब।।
मन भावन सावन लगे, रिमझिम पड़े फुहार।
बूढ़े-बच्चे सभी को, करते हर्ष अपार।।
सोलह सावन को किये, शिव का पूजन आप।
इसीलिए क्या कर रहे, उसके बदले पाप।।
सुधीर श्रीवास्तव