"रात जब जंगल रोया"
चुप थी रात, पर भीतर से टूटी थी,
धरती की कोख जैसे कराहती थी।
400 एकड़ सपनों की लाशें बिछीं,
इंसानों के लालच ने हरियाली छीनी।
पेड़ों के दिल से लहू टपकता रहा,
हर टहनी का दर्द हवाओं में घुलता रहा।
जड़ें तड़पती रहीं मिट्टी के भीतर,
जैसे माँ की कोख उजड़ी हो भीतर।
हिरण भागते रहे आँखों में डर लिए,
चिड़ियाँ उड़ गईं अपनी तिनकों की दुनिया लिए।
नदी किनारे बैठा एक बूढ़ा बरगद रोया,
"कहाँ जाएँ अब वे परिंदे?" — ये उसने भी पूछा।
नदी ने भी धीमे-धीमे बुदबुदाया,
"जिन पेड़ों ने मेरा आँचल सँवारा था,
आज वे सब कटे पड़े हैं,
कल मैं भी सूख जाऊँगी,
किसे प्यास बुझाऊँगी?"
हवा ने चीख कर सवाल किया,
"जब मेरे झूले बिन पत्तों के हो जाएँगे,
तब क्या मैं भी ज़हर बन जाऊँगी?"
कोई जवाब नहीं था, बस मशीनों की गुर्राहट थी,
और इंसानों की ठंडी मुस्कानें थीं।
एक जंगल मरा नहीं उस रात,
मर गईं उम्मीदें, सपने, साँसें,
और मर गया वो भरोसा,
कि इंसान अब भी प्रकृति का बेटा है।