स्त्रियां उठ जाती हैं मुंह अंधेरे,
फिर एक पैर पर चक्करघिन्नी सी घूमती रसोई संग घर के और जरूरी कई काम निपटाती जाती है।
बच्चे और पति खा पीकर हो अच्छे से तैयार इसलिए
सबको टिफिन संग उनका हर सामान हाथ में पकड़ाती है।
लेकिन सुबह की इस आपा धापी में अक्सर ठंडी हो जाती उसकी चाय तो कभी अपना टिफिन ही भूल जाती है।
कितनी ही बार सोचती है कि कल मैं भी
अच्छे से सज संवर अपने स्कूल और दफ्तर जाऊंगी
लेकिन घर परिवार की जिम्मेदारियां के आगे
कहां खुद को चाह कर भी वो समय दे पाती है।
अब तो अलमारी में टंगी साड़ियां भी उसको मुंह चिढ़ाती है ।
लेकिन कर उनको अनदेखा बेमन से कुछ भी पहन
अस्त-व्यस्त सी वो हर रोज़ दौड़ती भागती सी स्कूल ,ऑफिस के लिए निकल जाती है।
भर जाता जब भीतर उसके अथाह लावा
तब खूब चीख चिल्लाकर अपनी तकलीफ दिखलाती है।
लेकिन अगले ही पल सबका दिल दुखाने के लिए
खुद को ही दोषी पाकर फूट-फूट कर आंसू बहाती है।
नहीं चाहती उसके कारण हो किसी को तकलीफ
इसलिए हर ग़म खुद ही हंसते हंसते पी जाती है।
झूठे हैं वो लोग... जो कहते हैं कि
एक स्त्री अपने भीतर कोई राज़ छुपा नहीं पाती है।
जुड़े रहे रिश्ते और बसा रहे उसका घर संसार
इस खातिर जीवन भर दफनाए रखती सीने में कई राज़
और आखिर में इन राज़ संग ही वो दफन हो जाती है।।
सरोज ✍️
- Saroj Prajapati