कुछ दिन पहले एक उपन्यास पढ़ा था
गुनाहों का देवता
वो उपन्यास ऐसा है मानो लेखक ने अपने अंदर के पूरे प्रेम को सुधा के चरित्र में पिरो दिया हो...शायद उस वक्त मैं ये इतना नहीं समझ पाई जितना अब समझ पा रही हूं पर उसे दोबारा पढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही।
सुधा जितना उच्च कोटि का प्रेम करना कहा संभव है ... और चंदर की आदर्शवादिता का परिणाम भी सुधा जैसी देवी ने भुगता🥲इसका अंत भी एक सामाजिक विडंबना है जो आज के जमाने में भी प्रासंगिक है और जाने कितनी ही सुधा को अभी सहना है....कितनी ही सुधा की बलि अभी तक चंदर को देनी है😅