मैं कुछ सोच रहा हूँ।
किसी दिन मन विद्रोही होगा ?
किसी दिन खौलेगा
खून मेरा !
न जाने उस दिन हवा कैसी होगी ?
बादलों में उफान होगा ?
रात लोगों की नींद में
भी इन्तकाम होगा।
ख़्वाब देखूंगा जीतने के ?
मात दूंगा कभी उन्हें मैं ?
लाल होगा कभी बदन ये।
कभी हवाएं भी बढ़ चलेंगी ?
थामने को ये हाथ मेरा ?
जो सूख कर के हुए हैं बंजर
वो क्रोध मेरा वो प्राण मेरा ?
क्या लड़ सकूंगा चक्रव्यूह में ?
क्या बात होगी नगर नगर में ?
बहुत है दुविधा, है तन में थिरकन
है मन मगन, बस अलग सा है मन।
निढाल अर्जुन, तुम्हारा केशव।
समय नहीं है। कुछ तो बताओ।
न तुम हो कहते न मै हूँ करता।
कहां मैं जाऊं
करूं मैं क्या अब
करो उपाय करो उपाय।
हे केशवाय हे माधवाय।
आनंद त्रिपाठी