कभी जब मेला लगता है ख्वाबों का।
आप महक जाते हों जहन में कहीं।।
रूबरू होकर भी अदब से पेश आते हों।
आप खुद को छोड़ आते हो कही ।।
नहीं जानते आप की हमने आपको जाना था।
किसी और पे नज़र घुमाते हों कहीं।।
खुद को तरासना बाकी है या कश्मकश है कोई ?
लफ्जों की जंजीरों में आप बंधे हों कही ।।
तौबा करना गुनाह से, वहीं रास्ता है नूर का ।
अपनी किताबों को छोड़ आओ कही ।।
अंजाने रास्ते मालूम है, अक्सर भटकाते है।
अपने मजहबी कब्र से कदम निकालो कहीं।।
जिस्म मिट्टी है , खयाल मानो हवा की परतें है।
रिश्तों के तालाब में कवल तो खिलाओ कही ।।
तुम सुनो या ना सुनो , तुमारे तराज़ू है दोस्त ।
मेरी आवाज ही तेरे चुप्पी से टकराएगी कही ।।