सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते,
वर्ना इतने तो मरासिम थे कि आते जाते।

शिकवा-ए-ज़ुल्मत-ए-शब से तो कहीं बेहतर था,
अपने हिस्से की कोई शमा जलाते जाते।।

कितना आसाँ था तिरे हिज्र में मरना जानाँ,
फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते।

जश्न-ए-मक़्तल ही न बरपा हुआ वर्ना हम भी,
पा-ब-जौलाँ ही सही नाचते गाते जाते।।

इसकी वो जाने उसे पास-ए-वफ़ा था कि न था,
तुम 'फ़राज़' अपनी तरफ़ से तो निभाते जाते।

Hindi Poem by Jatin Tyagi : 111935844
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