सच्चा कर्म
नर्मदा नदी के तट पर एक महात्मा जी अपनी कुटिया में रहते थे। वे दिनभर प्रभु की भक्ति में तल्लीन रहकर उनका नाम जपा करते थे। एक व्यक्ति भी उनकी भक्ति भाव देखकर उनकी कुटिया की साफ सफाई करता रहता था और अपनी दिनभर की कमाई से जो भी धन उसे प्राप्त होता था उसे यथा संभव गरीब भिखारियों एवं अच्छे कार्यों में बांट दिया करता था। एक दिन उन दोनो की मृत्यु हो जाती है और जब उनकी आत्मा यमराज के पास पहुँचती है तब यमराज उनके कर्मों का हिसाब देखकर उस व्यक्ति को स्वर्ग पहुँचा देते है और महात्मा जी को वापिस पृथ्वी पर भेजने का निर्देश देते हैं यह सुनकर महात्मा जी यमराज से पूछते है कि वह व्यक्ति मेरे समान प्रभु भक्ति में कभी लीन नही रहता था फिर भी उसे स्वर्ग भेजा जा रहा है और मुझे वापिस पृथ्वी लोक भेजा जा रहा है ऐसा क्यों ?
उनकी बात सुनकर यमराज जी ने कहा तुम प्रभु का नाम लेते जरूर थे परंतु तुम्हारा मन हमेशा कुटिया में आ रहे बडे बडे धनाढ्य व संपन्न व्यक्तियों द्वारा दिये जाने वाले दान और वस्तुओं के प्रति आकर्षित रहता था तुम ईश्वर की भक्ति करते समय भी अपने विलासिता पूर्ण जीवन जीने की अभिरूचि रखते थे और सुंदर स्त्रियों को देखकर तुम्हारा मन विचलित होता था और उन्हें आशीर्वाद देने के बहाने अपनी वासना की पूर्ति करने का प्रयास करते थे। तुमने कभी भी दान में प्राप्त धनराशि को सदकार्यों में खर्च नही किया। तुम्हारा यह साथी तुम्हारी कुटिया की साफ सफाई एवं तुम्हारे सभी कार्यों को निस्वार्थ रूप से सेवाभाव से करता था इसने कभी भी जीवन में गलत तरीके से धन कमाने की कोशिश नही की एवं जो कुछ भी इसे दिन भर में प्राप्त हो जाता था उससे संतुष्ट होकर खुश रहता था और अपनी आवश्यकता से अधिक धन को जरूरतमंदो के लिये खर्च कर देता था। यह प्रभु का नाम सच्चे मन से स्मरण करता था। अब तुम्ही बताओ किसकी भक्ति ज्यादा श्रेष्ठ है ? यह सुनकर महात्मा जी निःशब्द हो गये और यमराज के निर्णय का स्वीकार के वापिस पृथ्वी पर पुनर्जन्म हेतु प्रस्थान कर गये।