व्यंग्य
ओ मोरी हसीना सुन
तेरे लिए कविता सुन
सोच रहा बहुत दिनों से
अल्फाज गाऊं तेरे लिए
रागों की मीठी सरगम पे
गीत गुनगुनाऊ तेरे लिए
तू चंचल चपल चारवी मेरी
हुस्न परी ख्वाबों की मेरी
कटीले नयन से न्यारी तुम
सर्पिल केशों से प्यारी तुम
.सच मेरे हृदय की तू
बड़ी सुगंधित खुशबू है
हाँ होगा यह इत्र नही
तेरे वदन की खुशबू है
बोले मुख से फूल झरे है
प्यारी तेरी बातें हैं
ओ सुषमा बोले कम क्यों
क्या इसमें भी राज़ है
घूमों मैं ये सकल विश्व ये
आग्रह तेरा कभी नहीं
स्वर्ण आभूषण रत्न श्री भी
भाए तुझको कभी नहीं
तू लजवन्ती सी कोमल नारी
हाथ छुए से सिमट गई
मन उपवन में लतिका जैसी
यहाँ-वहाँ तू फैल गई
कोटि कवि कोटि शायर भी
रूप बखान में चित्त हुए
इसमें हिन्दी,उर्दू तक के
शब्दकोश भी रिक्त हुए