वे सज्जन उनके जीवन रूपी फ़िल्म में अतिथि भूमिका निभाने लगे थे।
अच्छा लगा था उनका सानिध्य। उनके विचार बहुत सात्विक हुआ करते थे।
काम, क्रोध, मद, लोभ -कुछ भी तो नहीं झलकने पाता था उनके आचरण में!
लेकिन धीरे धीरे वे और भी अंतरंग बनने के क्रम में जाने कब उन दोनों के बीच या यूँ कहिए उनकी फ़िल्म में विलेन बन कर उपस्थित हो उठे।
व्हाइट कालर विलेन।
सचमुच उनको यह नहीँ पता था कि आपसी संबंधों में भी पहरेदारी आवश्यक हुआ करती है!ठीक उसी तरह जैसे अभिभावक अपने बच्चों के लिए करते हैँ या अभिभावकों को करना चाहिए।
एक समय आया कि तुलना होने लगी कि फ़िल्म में घुसपैठ बना रहा व्हाइट कालर विलेन अच्छा है या वे जीवन साथी?
बस, संदेह, अविश्वास की श्रृंखला चलने लगी और उस फ़िल्म में घर उजड़ने की पटकथा तैयार हो गई।फ़िल्म बनने के पहले ही फ्लॉप हो गई।
ज़िन्दगी कब, कैसे, किस रूप में करवटें ले लेती हैँ विश्वास नहीं हो पाता है।