1.#सिर्फ एक स्त्री
हाँ..
मुक्त हो जाना चाहा मैंने
सारे स्नेह बंधनो से
अपने ही बनाये
तमाम
मर्यादा की चौखटों से
मुक्त होकर
उड़ जाना चाहती हूँ
धुंए की तरह
दूर आसमान के
अनाम कोनो तक
जहाँ कोई अस्तित्व ही न बचे
मेरे वजूद का!!
हाँ.. वैसे भी क्या हूँ मैं..?
पृथ्वी का एक छोटा-सा अणु
नही नही..
अणु कहना
ठीक नही होगा
अणु से भी सूक्ष्म
एक नाभकीय कण
या उससे भी कम
बहुत कम
बिल्कुल कम
अणु भी क्या
परमाणु का हिस्सा
जैसे में तुम्हारे परिवार का
एक सुक्ष्म सा महत्वहीन कण
मै विस्फोट नही कर सकती
परमाणु सा
सामर्थ्य नही मुझमें
सबकुछ नेस्ताबुद करने का
अतः सुक्ष्म कण ही बनी
रहती हुँ हमेशा
ज्वाला जो धधकती अंदर
दबाये रखती चुपचाप
ना पहुँचे ये आग
किसी और के पास
अतः खुद को जलाये रखती हुँ मै
मुक्त हो जाना चाहा था मैंने कभी
अणु परमाणु में बदल जाने तक
परमाणु सा विखण्डित होकर भी
मुक्त होकर भी
शांत रहना चाहती हुँ मैं..
सिर्फ एक स्त्री ही बनी रहना चाहती हुँ..
.. मै....
#सुमन कुमावत
2. #वो आधी रोटी
बचपन में भुख लगने पर
माँ सब भाई–बहनों को
बारी-बारी से परोसती
गरमा-गरम फुली-फुली
गोल-गोल भुरी-भुरी रोटी
सबकी थाली में
बड़े स्नेह से धीरे से
वो रखती चुपड़ी रोटी
पेट भर जाने पर
मना करने पर भी
वो कहती
एक तो ले लो
छोटी सी तो है
और पतली भी है
वो नही मानती
कहती चलो
आधी तो ले लो
एकदम गरमा-गरम
और
ज्यादा घी लगी और
एकदम कड़क भी हैं
तुम्हें पसंद हैं ना
ऐसी रोटी
उस ममता व स्नेह के आगे
हार जाती जिद्द्
माँ आधी रोटी ज्यादा खिलाकर
खुश हो जाती
और बेटी अतिरिक्त प्रेम
पाकर निहाल हो जाती
और इस तरह
बचपन बीत गया
वो प्रेम भरी
आधी रोटी खाकर
बेटी घर से विदा हो गई
बनती है
गरमा-गरम रोटी
प्रतिदिन ही घर में
लेकिन
अब नही रखता
कोई थाली में
गरमा-गरम फुली-फुली
गोल-गोल भुरी-भुरी
कड़क कड़क
ज्यादा घी लगी रोटी
परोसी जाती है
थाली में
प्रतिदिन रोटी
पर अब माँ कहाँ..?
सिर्फ मैं..
और मेरी रोटी
ढूँढ़ती है आज भी
मेरी थाली
वो आधी रोटी...
#सुमन कुमावत
3. #मिडिल क्लास लोग
मिडिल क्लास लोग चाहते
हाई क्लास
जैसे जीना
करते दिखावा
हवाई खयालों में रहते
ऊँचे रहन-सहन
कामवाली बाई
नकली गहनों
और लंबी-सी गाड़ी
की इच्छा से भरे हुए
हैसियत से ज़्यादा
बड़े स्कूल में
बच्चों को पढ़ाते
उनकी जायज-नाजायज
मांगों को मुस्कान से
या
मन मार कर पूरा करते
ज़िंदगी की दौड़ में
घुटते-खटते रहते
कसमकसाकर
करते रहते कोशिशें
पाटने की गहरी खाई
सारी उम्र फ़ंसे रहते
दो पाटों के बीच
जीते रहते तंग हाल
आपाधापी और उथल-पुथल
में अपनी घिसी-पिटी ईमानदारी
और उसूलों के साथ की जिंदगी
नए जमाने में भी
उनकी जड़े जमी रहती
अपने पुरखों के अटल भरोसे पर
मेहनत की बूंदों से
फलांघना चाहते
उस खाई को
#सुमन कुमावत
4.#कितना जरूरी
होता कितना जरूरी
इस दुनियाँ में
अपनी आकांक्षाओ को
इच्छाओं को
सपनों को
खुशियों में
बदलने के लिये
हरे–हरे गुलाबी गुलाबी
नोटो का जेब में
भरे होना
#सुमन कुमावत