कुम्भकरण की व्यथा!!
हे लंकेश, मेरी व्यथा सुनो,
काल ग्रसित होने पर भी
क्यों मुझे जलाया जाता है?
अरे, मैं ने तो तुम्हे समझाया था,
सही और गलत बताया था
लेकिन तुमने मेरी न सुनी
मेरा सुझाव ठुकराया था ।
बतलाओ इन लोगो को ,
की मैं तो गलत कभी न था
मैंने तो पालन आज्ञा की,
जो धर्म मेरे जीवन का था ।
मैंने बतलाया था तुमको,
वह मानव ब्रम्हाण्ड रचयिता है
जिसने हम सब को है रचा
वह उसी प्रभु की छैया है।
मेरी गलती तो बतलाओ,
मुझको प्रकाश तो दिखलाओ
क्या मेरा है अपराध कहो
मैं क्यों अपमानित होता हूं
प्रति वर्ष, हे भ्रात कहो।
तुमने अपराध अछम्य किया
कुल मर्यादा को नष्ट किया
मैंने क्या किया, हे नाथ कहो
इस अंतर्द्वन्द को शांत करो
मेरा पुतला क्यों जलता है
मुझपर यह जग क्यों हंसता है
इन लोगो तुम समझाओ
क्या सत्य है ,यह बतलाओ
हर वर्ष मैं लज्जित होता हूं
कुंठा में धु - धु जलता हूँ
हे नाथ, इन्हें तुम समझाओ
मैं गलत नही था ,बतलाओ
फिर मेरा क्यों अपमान हुआ
यह जग सच से अनजान हुआ
मेरी पीड़ा को समझो तुम
हे दयानिधे, इसे हर लो तुम
इस कलंक से मुझे मुक्त करो
आत्मा मेरी उन्मुक्त करो
तुम तो प्रकांड विद्वान हुए
शास्त्रो का अमृत पान किये
तो इस समाज को समझाओ
अपना अपराध इन्हे बतलाओ
मुझको ना उसमे लिप्त करें
मुझको अपमान मुक्त करें
मैं शांति तभी ही पाउँगा
भव सागर तर जाऊँगा
प्रतिवर्ष कलंकित होने से
मैं तब मुक्त हो जाऊंगा।