अंग्रेजों पर हावी जब नवचंडी थी, ओर कोई नहीं वह रानी लक्ष्मी थी
57 की क्रांति में जब रियासतों ने हाथ में चूड़ी पहनी थी,
तब वह अकेली ही तलवार लेकर रण में लड़ी थी।।
ममता को धर के अपने बाहु पर मांँ काली का रूप लिया था
मूख से ना सही लेकिन शमशीर से उसने अपनी सब का लहू पिया था
सिर कट गया था सांँसे थी लड़खड़ा रही आंँखों में लगी थी गोली,
प्रचंड संग्राम में फिर भी दस दस को मार के खेल रही थी लहू की होली।
फिरंगी देखना पाया उस समर भवानी की ज्वाला।
जिंदा छू भी ना पाया उस चण्डी़ की काया।
इतिहास शायद तभी पलट जाता घर का भेदी अगर विभीषण ना बनता तो भारत आजाद 57 में ही हो जाता।
स्वाति सिंह साहिबा